SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १३३ उद्वर्तना- अपवर्तनाकरण ] अबाधा के अन्तर्गत कर्मदलिक उद्वर्तना के योग्य नहीं होता है, किन्तु अबाधा से परवर्ती दलिक ही उद्वर्तना के योग्य होता है और ऐसा होने पर जो उत्कृष्ट अबाधा है, वही उत्कृष्ट अतीत्थापना तथा एक समय कम उत्कृष्ट अबाधा एक समय कम उत्कृष्ट अतीत्थापना है, दो समय कम उत्कृष्ट अबाधा दो समय कम उत्कृष्ट अतीत्थापना है । इस प्रकार एक समय की हानि से अतीत्थापना उत्तरोत्तरहीन तब तक कहना चाहिये जब तक कि जघन्य अबाधा अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्राप्त होती है। उससे भी जघन्यतर अतीत्थापना आवलिका प्रमाण होती है और वह उदयावलिका लक्षणवाली जानना चाहिये । जैसा कि कहा है – 'उदयावलिका की अन्तर्वर्ती स्थितियां उद्वर्तित नहीं होती हैं किन्तु उदयावलिका से बाहर की ही स्थिति की उद्वर्तना होती है' इस वचन के अनुसार उदयावलि के अन्तर्गत स्थितियां उवर्तित नहीं होती हैं । १ शंका 'आबंधा उक्कड्ढिइ' इत्यादि आगे कही जाने वाली गाथा के अनुसार 'जितने काल तक या जब जब बंध होता है तब तक उद्वर्तना होगी तब उदयावलिका गत स्थितियां अबाधा के अन्तर्गत होने से उदवर्तित नहीं होगी' इस वाक्य में उदयावलिका के ग्रहण करने से क्या प्रयोजन है ?? - समाधान यह शंका योग्य नहीं है। आपने इसका अभिप्राय नहीं समझा है । क्योंकि अबाधा के अन्तर्गत स्थितियां उद्वर्तित नहीं होती हैं - इसके द्वारा यह बताया गया हैं कि अबाधा के अन्तर्गत विद्यमान स्थितियां अपने स्थान से उखाड़कर ऊपर निक्षिप्त नहीं की जाती हैं । किन्तु अबाधा के मध्य में तो उनका बक्ष्यमाणा क्रम से उद्वर्तन और निक्षेप होने से विरोध नहीं होता है । इसलिये 'उदयावलिका के अन्तर्गत भी उद्वर्तनीय स्थितियां प्राप्त होती हैं ' इसका यहां निषेध किया है। - १. कर्मप्रकृति उद्वर्तना-अपवर्तना करण गाथा १० २. इस प्रश्न का भावार्थ यह है कि जब अन्तर्मुहूर्त जघन्य अबाधा रूप अतीत्थापना बताई है, तब उदयावलिका तो (अन्तर्मुहूर्त से भी अत्यल्प होने से) अन्तर्मुहूर्त में अन्तः प्रविष्ट है ही। अतः अन्तर्मुहूर्त की जघन्य अतीत्थापना कहने का क्या कारण है। क्योंकि ऐसा संभव नहीं है कि अवधारणा रूप अतीत्थापना बिल्कुल विद्यमान ही न हो और उस समय मात्र उदयावलिका ही विद्यमान हो। यदि ऐसा हो तो उदयावलिका रूप अतीत्थापना अन्तर्मुहूर्त रूप अतीत्थापना से अलग कही जा सकता है। ३. अबाधा संबंधी अन्तर्मुहूर्त की जघन्य अतीत्थापना और उदयावलिका रूप अतीत्थापना में अन्तर है। क्योंकि अबाधा अतीत्थापना की सर्वथा उद्वर्तना नहीं होती है, ऐसा नहीं है, लेकिन अबाधान्तर्गत स्थितियों का अबाधा से ऊपर प्रक्षेप अथवा निक्षेप नहीं होता है किन्तु अबाधा का अबाधा में प्रक्षेप अथवा निक्षेप तो हो सकता है और उदयावलिका के दलिक का कहीं भी प्रक्षेप नहीं करने की अपेक्षा अतीत्थापना रूप से विवक्षित की हैं और उदयावलिका की स्थितियां तो सर्वथा कहीं पर भी प्रक्षिप्त नहीं करने की अपेक्षा अतीत्थापना रूप से विवक्षित की है। अतः इन दोनों अतीत्थापनाओं में महान अंतर होने से उदयावलिका के अबाधान्तर्गत होने पर भी ये दोनों अतीत्थापना पृथक् मानी जाती हैं।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy