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________________ १३० ]. [ कर्मप्रकृति विशेषार्थ - श्रेणी पर अनारोहण अर्थात् उपशमश्रेणी को न करके शेष विधि से अर्थात् क्षपितकांश होते हुए पंचेन्द्रिय जाति, समचतुरस्त्र संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, तैजससप्तक, प्रशस्त विहायोगति, शुक्ल लोहित, हारिद्र वर्ण, सुरभि गंध, कषाय, अम्ल, मधुर रस, मृदु, लघु, स्निग्ध, उष्ण, स्पर्श, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, त्रसादि दशक निर्माण इन छत्तीस प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशाग्र करके कर्मक्षपण के लिये उद्यत क्षपतकांश जीव के अपूर्वकरण काल की प्रथम आवलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। उससे ऊपर गुणसंक्रम के द्वारा अत्यधिक प्राप्त हुए कर्मदलिक का संक्रमावलि के अतिक्रांत हो जाने से संक्रम तो संभव है, किन्तु जघन्य प्रदेशसंक्रम नहीं। तथा – सम्मद्दिट्ठिअजोग्गाण, सोलसण्हं पि असुभपगईणं। थीवेएण सरिसगं, नवरं पढमं तिपल्लेसु॥ ११०॥ . शब्दार्थ – सम्मदिट्ठिअजोग्गाण -- सम्यग्दृष्टि के अयोग्य, सोलसण्हं – सोलह, पि - भी, असुभपगईणं - अशुभ प्रकृतियों का, थीवेएण - स्त्रीवेद, सरिसगं - सदृश, नवरं – परन्तु, पढमं - प्रथम, तिपल्लेसु - तीन पल्योपम। गाथार्थ – सम्यग्दृष्टि के अयोग्य सोलह अशुभ प्रकृतियों का भी जघन्य प्रदेशसंक्रम स्त्रीवेद के समान जानना चाहिये। परन्तु केवल तीन पल्योपम की आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ, इतना विशेष कहना चाहिये। विशेषार्थ – सम्यग्दृष्टि के अयोग्य जो प्रथम संस्थान और संहनन को छोड़कर शेष पांच संस्थान और पांच संहनन अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, नपुंसकवेद, नीचगोत्र रूप सोलह प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम भी स्त्रीवेद के सदृश कहना चाहिये। अर्थात् जिस प्रकार पहले स्त्रीवेद के जघन्य प्रदेशसंक्रम का कथन किया गया है, उसी प्रकार यहां भी समझना चाहिये। लेकिन इतना विशेष है कि इन सोलह प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशसंक्रम का स्वामी पहले तीन पल्योपम की आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्त की आयु शेष रह जाने पर सम्यक्त्व को प्राप्त कहना चाहिये। शेष वक्तव्यता स्त्रीवेद की वक्तव्यता के अनुसार है। तथा – नरतिरियाण तिपल्लस्संते ओरालियस्स पाउग्गा। तित्थयरस्स य बंधा, जहन्नओ आलिगं गंतु॥१११॥ शब्दार्थ – नरतिरियाण - मनुष्य और तिर्यंच को, तिपल्लस्संते – तीन पल्योपत के अंत में, १. पंचसंग्रह में तो वऋषभनारचसंहनन को छोड़ कर शेष पैंतीस प्रकृति का ही अपूर्वकरण की प्रथम आवलि के अंत में जघन्य प्रदेशसंक्रम कहा है तथा वऋषभनाराचसंहनन का अपने बंधविच्छेद के समय में जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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