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________________ संक्रमकरण ] [ १२९ नवरं – परन्तु, पंचासीउदहिसयं तु – एक सौ पचासी सागरोपम तक। गाथार्थ – एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के योग्य जो आठ और अपर्याप्त प्रकृति के साथ कुल नौ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम तिर्यंचगति के समान जानना चाहिये, परन्तु एक सौ पचासी सागरोपमों तक अबन्ध कहना चाहिये। _ विशेषार्थ - एकेन्दिा और विकलेन्द्रिय के योग्य जो आठ प्रकृतियां हैं, अर्थात् एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, सूक्ष्म और साधारण इन आठ में अपर्याप्तक को मिलाने में कुल नौ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम तिर्यंचगति के समान कहना चाहिये। केवल यहां पर एक सौ पचासी सागरोपम और चार पल्योपम अधिककाल तक उनको नहीं बांधकर इतना विशेष कहना चाहिये। प्रश्न – इतने काल तक उक्त नौ प्रकृतियों का बंध कैसे नहीं होता है ? उत्तर – यहां जो क्षपितकर्मांश जीव हैं। वह छठवीं नरक पृथ्वी में बाईस सागरोपम की स्थितिवाला नारक हुआ। वहां पर भी आयु के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रह जाने पर सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और वहां से सम्यक्त्व के साथ ही निकलकर मनुष्य हुआ और उसी प्रतिपतित सम्यक्त्व के साथ देशविरति को पालकर सौधर्म देवलोक में चार पल्योपम की स्थिति वाला देव हुआ। पुनः वहां से (देवभव से)उसी प्रतिपतित सम्यक्त्व के साथ च्युत होकर मनुष्य हुआ। उस मनुष्यभव में संयम का पालन कर ग्रैवेयकों में इकतीस सागरोपम की स्थिति वाला देव हुआ। वहां पर उत्पन्न होने के अनन्तर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् छियासठ सागरोपम तक सम्यक्त्व का अनुपालन कर उस सम्यक्त्वकाल का अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर कर्मक्षपण के लिये उद्यत हुआ। इस प्रकार एक सौ पचासी सागरोपम और चार पल्योपम काल तक पूर्वोक्त नौ प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। तथा - छत्तीसाए सुभाणं, सेढिमणारुहिय सेसगविहीहिं। कट्टु जहन्नं खवणं, अपुवकरणालिया अंते॥१०९॥ शब्दार्थ – छत्तीसाए - छत्तीस, सुभाणं - शुभ प्रकृतियों को, सेढिमणारुहिय - (उपशम) श्रेणी का आरोहण नहीं करके, सेसगविहीहिं – शेष विधि के द्वारा, कट्ट – करते हुए, जहन्नं - जघन्य, खवणं – क्षपण, अपुव्वकरणालिया - अपूर्वकरण की आवलिका के, अंते – अन्त में। गाथार्थ – उपशमश्रेणी पर आरोहण नहीं करके (क्षपितकांश की) शेष विधि के द्वारा छत्तीस शुभ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेश समूह करके क्षपण करते हुये अपूर्वकरण की प्रथम आवलिका के अंत में जघन्य प्रदेशसंक्रम करता है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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