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________________ ११८ ] [ कर्मप्रकृति ये चारों प्रकृतियां नपुंसकवेद के समान हैं। अर्थात् नपुंसकवेद के समान इन प्रकृतियों का भी उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम जानना चाहिये तथा आहारकसप्तक और तीर्थंकर नामकर्म का स्थिर प्रकृति के समान कहना चाहिये। लेकिन केवल उनके अपने अपने उत्कृष्ट बंधकाल तक उनका बंध जानना चाहिये। इसका आशय यह है -. ___ आहारकसप्तक और तीर्थंकर नामकर्म का जो अपना अपना उत्कृष्ट बंधकाल है, उतने काल तक उनका लगातार बंध कहना चाहिये। उनमें से आहारकसप्तक का उत्कृष्ट बंधकाल कुछ कम एक पूर्व कोटि संयम को पालन करने वाले संयत का जितना अप्रमत्त संयत गुणस्थान काल है , उतना सब जानना चाहिये और तीर्थंकर नामकर्म का उत्कृष्ट बंधकाल देशोन दो पूर्व कोटि से अधिक तेतीस सागरोपम है। इसलिये इतने काल तक तीर्थंकर नामकर्म को पूर कर क्षपकश्रेणी को प्राप्त हो कर जब बंधविच्छेद के अनन्तर आवलि प्रमाण काल का उल्लंघन कर उन्हें यश:कीर्ति में संक्रांत करता है, तब उन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। तथा - चउरुवसमित्तु मोहं, मिच्छत्तगयस्स नीयबंधंतो। उच्चागोउक्कोसो, तत्तो लहु सिझओ होई॥ ९३॥ शब्दार्थ - चउरुवसमित्तु - चार बार उपशमना कर, मोहं – मोहनीय कर्म को, मिच्छत्तगयस्समिथ्यात्व में गये हुए, नीयबंधंतो – नीचगोत्र के बंधविच्छेद के बाद, उच्चागो - उच्चगोत्र का, उक्कोसो - उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम, तत्तो – तत्पश्चात्, लहु - शीघ्र, सिझओ – सिद्ध होने वाले जीव के, होई - होता है। गाथार्थ – चार बार मोहकर्म को उपशमित कर मिथ्यात्व में गये हुए जीव के नीचगोत्र का बंध कर पुनः नीचगोत्र का बंधविच्छेद कर शीघ्र ही सिद्ध होने वाले जीव के नीचगोत्र के चरम बंधविच्छेद के समय में उच्चगोत्र का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। विशेषार्थ – मोहकर्म का उपशम करता हुआ जीव उच्चगोत्र को ही बांधता है, नीचगोत्र को नहीं। उस समय नीचगोत्र संबंधी कर्मदलिकों को गुणसंक्रम के द्वारा उच्चगोत्र में संक्रमाता है। इसलिये चार बार मोहकर्म के उपशम का ग्रहण अवश्य करना चाहिये। वहां पर चार बार मोहनीय कर्म को उपशमाता हुआ और उच्चगोत्र को बांधता हुआ उसमें नीचगोत्र को गुणसंक्रम से संक्रमाता है। मोहकर्म का चार बार उपशम दो भव में होता है। इसलिये वह तीसरे भव में मिथ्यात्व को जाता हुआ नीचगोत्र को बांधता है और उसे बांधता हुआ उसमें उच्चगोत्र को संक्रमाता है। तत्पश्चात फिर सम्यक्त्व को प्राप्त हो कर उच्चगोत्र को बांधता हुआ उसमें नीचगोत्र को संक्रमाता है। इस प्रकार बार बार उच्चगोत्र को और नीचगोत्र को बांधते हुए नीचगोत्र के बंधविच्छेद के अनन्तर शीघ्र ही सिद्ध लोक को गमन करने के इच्छुक जीव के नीचगोत्र के बंध के चरम
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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