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________________ संक्रमकरण ] [ ११७ करता है तथा देवगति, देवानुपूर्वी और वैक्रियसप्तकरूप देवगतिनवक को जब पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक पूर करके अष्टम भव में क्षपकश्रेणी को प्राप्त होता हुआ अपने अपने बंध के अंत में अर्थात् उक्त प्रकृतियों के बंधविच्छेद के अनन्तर आवलि काल मात्र बिता कर जब उन्हें यश:कीर्ति में प्रक्षिप्त करता है तब उसके उन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। क्योंकि उस समय ही गुणसंक्रमण से प्राप्त अन्य प्रकृतियों के दलिकों का भी संक्रमावलिका बीत जाने से संक्रमण प्राप्त होता है। तथा – सव्वचिरं सम्मत्तं, अणुपालिय पूरइत्तु मणुयदुगं। सत्तमखिइनिग्गइए (यगे), पढमे समए नरदुगस्स॥९१॥ शब्दार्थ – सव्वचिरं – सर्वोत्कृष्ट दीर्घकाल तक, सम्मत्तं – सम्यक्त्व को, अणुपालिय - अनुपालन, धारण कर, पूरइत्तु – पूर कर, बांध कर, मणुयदुगं – मनुष्यद्विक को, सत्तमखिइनिग्गइए - सातवीं पृथ्वी से निकलने वाले, पढमे – प्रथम, समए – समय में, नरदुगस्स – मनुष्यद्विक का। गाथार्थ – सर्वोत्कृष्ट काल तक सम्यक्त्व को धारण कर और मनुष्यद्विक को बांध कर सातवीं पृथ्वी से निकलने वाले जीव के प्रथम समय में मनुष्यद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। विशेषार्थ – सव्वचिरं अर्थात् सर्वोत्कृष्ट काल तक यानी अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम काल तक सम्यक्त्व का अनुपालन कर सप्तम (नरक) पृथ्वी में वर्तमान नारक सम्यक्त्व निमित्तक मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वीरूप मनुष्यद्विक को अपने काल तक पूर कर अर्थात् बांध करके जीवन के अंतिम अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ तब मिथ्यात्व के निमित्त से तिर्यंचद्विक को बांधने वाले गुणितकर्मांश और सप्तम पृथ्वी से निकलने वाले उस जीव के प्रथम समय में मनुष्यद्विक का यथाप्रवृत्तसंक्रम के द्वारा उस बध्यमान तिर्यंचद्विक में संक्रम करते हुए मनुष्यद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। तथा – थावरतज्जाआया, वुजोयाओ नपुंसगसमाओ। आहारगतित्थयरं, थिरसममुक्कस्स सम कालं॥ ९२॥ शब्दार्थ – थावरतज्जाआया – स्थावर, उसकी जाति (एकेन्द्रिय जाति) और आतप, व – और, उज्जोयाओ - उद्योत का, नपुंसगसमाओ – नपुंसकवेद के समान, आहारगतित्थयरं - आहारक और तीर्थंकर का, थिरसमं - स्थिर नाम के समान, उक्कस्स - उत्कृष्ट, सम कालं - अपने काल तक। गाथार्थ - स्थावर और उसकी जाति तथा आतप उद्योत नाम का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम नपुंसकवेद के समान, आहारकसप्तक और तीर्थंकर नाम का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम स्थिर नामकर्म के समान अपना उत्कृष्ट बंध काल पूरण करने पर जानना चाहिये। विशेषार्थ – स्थावर नामकर्म तथा तजाति अर्थात् एकेन्द्रिय जाति और आतप एवं उद्योत नामकर्म
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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