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________________ संक्रमकरण ] [ १०९ तत्तो उव्वट्टिता, आवलिगा समयतप्भवत्थस्स। आवरणविग्घचोइसगोरालियसत्त उक्कोसो॥७९॥ शब्दार्थ – तत्तो – वहां से, उव्वट्टिता – निकलकर, आवलिगासमय - आवलिका के अन्त समय में, तष्भवत्थस्स - पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के भव में उत्पन्न, आवरण - आवरण, विग्ध - अन्तराय, चोद्दसग - चौदह, ओरालियसत्त - औदारिकसप्तक, उक्कोसो - उत्कृष्ट । गाथार्थ - वहां से निकल कर पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के भव में उत्पन्न हो कर आवलिकाल के अंत समय में आवरणाद्विक (ज्ञानावरण, दर्शनावरण) अन्तराय सम्बन्धी चौदह प्रकृतियों का तथा औदारिकसप्तक का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है। विशेषार्थ – वह पूर्वोक्त गुणितकर्मांश जीव उस सप्तम नरक से निकल कर पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के मध्य में उत्पन्न हुआ, वह तद्भवस्थ अर्थात् उस संज्ञी पंचेन्द्रिय के भव में रहते हुए प्रथम आवलिका के उपरितन चरम समय में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अन्तरायपंचक और औदारिकसप्तक रूप इक्कीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है। क्योंकि वह नारक भव के चरम समय में उत्कृष्ट योग के वश इन प्रकृतियों के बहुत कर्मदलिक को ग्रहण करता है। वह बंधा हुआ कर्मदलिक बंधावलिका के व्यतीत हो जाने पर संक्रमाता है, अन्यथा नहीं। अन्यत्र इससे बहुत अधिक कर्मदलिक प्राप्त नहीं होता है यह बताने के लिये गाथा में आवलिगासमयतप्भवत्थस्स' इस पद को ग्रहण किया गया है तथा - कम्मचउक्के असुभाणऽबज्झमाणीण सुहमरागंते। संछोभणमि नियगे, चउवीसाए नियट्टिस्स॥८०॥ शब्दार्थ – कम्मचउक्के – कर्मचतुष्क में, असुभाण - अशुभ प्रकृतियों का, अवज्झमाणीणअबध्यमान, सुहमरागते - सूक्ष्मसंपराय के अंतिम समय में, संछोभणमि – अन्त्य संक्रम में, नियगे - निज, चउवीसाए - चौबीस प्रकृतियों का, नियट्टिस्स – अनिवृत्तिगुणस्थान के। गाथार्थ – कर्मचतुष्क में अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों का सूक्ष्मसंपरायक्षपक के अन्त समय में अपने अपने चरम प्रदेशसंक्रम के समय उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है और चौबीस प्रकृतियों का अनिवृत्ति संपराय गुणस्थान में अंतिम समय में अर्थात् अपने अपने चरम प्रदेशसंक्रम के समय उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता विशेषार्थ – कम्मचउक्के अर्थात् दर्शनावरण, वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मचतुष्क में जो अशुभ प्रकृतियां सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की अवस्था में अबध्यमान हैं यथा - निद्राद्विक, असातावेदनीय, प्रथम संस्थान को छोड़कर शेष पांच संस्थान, प्रथम संहनन को छोड़कर शेष पांच संहनन, अशुभ वर्णादिनवक,
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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