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________________ संक्रमकरण ] [ ८९ वीतरागछद्मस्थ समयाधिक आवलिका प्रमाण स्थिति के शेष रहने पर जघन्य अनुभागसंक्रम करता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व रूप दर्शनमोहनीयद्विक का क्षपण काल में अपने-अपने चरम रसखंड के संक्रमण काल में जघन्य अनुभागसंक्रम होता है । अब आयुकर्म की प्रकृतियों के जघन्य अनुभागसंक्रम के स्वामित्व का विचार करते हैं चारों ही आयुकर्म की प्रकृतियों की जघन्य स्थिति को बांधकर अर्थात जघन्य स्थिति बांधता हुआ जघन्य अनुभाग को बांधता है, यह बताने के लिये 'जघन्य स्थिति 'यह पद कहा है । जघन्य स्थिति को बांधकर बंधावलि से परे जघन्य अनुभाग का संक्रम तब तक करता है, जब तक कि समयाधिक आवलिकाल शेष रहता है। इसलिये जघन्य स्थिति को बांधकर जब तक संक्रम होता है तब तक जघन्य अनुभागसंक्रम पाया जाता है। 1 उवलन प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग संक्रम के स्वामी यह हैं नरकद्विक, मनुष्यद्विक, देवद्विक, वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक और उच्चगोत्र इन इक्कीस उवलन प्रकृतियों का, तीर्थंकर नाम और अनन्तानुबंधी कषायों का जघन्य अनुभाग बांधकर बंधावलिका रूप प्रथम आवलि का अतिक्रमण करके अर्थात बंधावलिका के पश्चात जघन्य अनुभाग को संक्रमाता है । प्रश्न कौन संक्रमाता है ? उत्तर – वैक्रियसप्तक, देवद्विक और नरकद्विक इन ग्यारह प्रकृतियों को असंज्ञी पंचेन्द्रिय, मनुष्याद्विक और उच्चगोत्र को सूक्ष्म निगोदिया जीव आहारकसप्तक को अप्रमत्त संयत, तीर्थंकर नाम को अविरत सम्यग्दृष्टि और अनन्तानुबंधी कषायों को सम्यक्त्व को छोड़ा हुआ मिथ्यादृष्टि जीव संक्रमाता है। - पूर्वोक्त प्रकृतियों से शेष रही शुभ और अशुभ सत्तानवै प्रकृतियों का हतसत्कर्मा 'हत' अर्थात विनष्ट किया गया है, प्रभूत अनुभागसत्कर्म (सत्ता) जिसके द्वारा हतं विनाशितं प्रभूतं अनुभागसत्कर्मं येन स हतसत्कर्मा सूक्ष्म एकेन्द्रिय वायुकाय अथवा अग्निकाय जीव अपनी अनुभागसत्ता से नीचे अर्थात उससे भी अल्पतर अनुभाग तब तक बांधता है, जब तक कि वह एकेन्द्रिय जीव उसी एकेन्द्रिय भव में वर्तमान रहता है, अथवा वह हतसत्कर्मा जीव अन्य एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिययादि भव में वर्तमान रहता हुआ उससे अधिक अनुभाग को नहीं बांधता है तब तक उसी जघन्य अनुभाग का संक्रम करता है। इस प्रकार अनुभाग संक्रम का विवेचन समाप्त हुआ । - १. यह कथन सामान्य से समझना चाहिये। क्यों कि जघन्य स्थितिसंक्रम के समय जघन्य अनुभागसंक्रम होना संभव है निद्राद्विक का जघन्य स्थितिसंक्रम दो आवलिका शेष रहने पर हो जाता है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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