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________________ संक्रमकरण ] [ ८७ सम्मट्ठिी न हणइ, सुभाणुभागे असम्मदिट्ठी वि। सम्मत्तमीसगाणं, उक्कोसं वज्जिया खवणं॥५६॥ शब्दार्थ – सम्मट्ठिी – सम्यग्दृष्टि, न हणइ – घात नहीं करता है, सुभाणुभागे - शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को, असम्मदिट्ठी – मिथ्यादृष्टि, वि - भी, सम्मत्तमीसगाणं – सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय, उक्कोसं – उत्कृष्ट अनुभाग, वजिय – छोड़कर, खवणं – क्षय काल को। गाथार्थ – सम्यग्दृष्टि जीव शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात नहीं करता है और क्षय काल को छोड़कर मिथ्यादृष्टि जीव भी सम्यक्त्व और मिश्र प्रकृति के उत्कृष्ट अनुभाग का घात नहीं करता है। _ विशेषार्थ – सम्यग्दृष्टि जीव सातावेदनीय, देवद्विक, मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रिय जाति, प्रथम संस्थान, प्रथम संहनन, औदारिकसप्तक, वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक, तैजससप्तक, शुभ वर्णादिएकादश, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति त्रसदशक, निर्माण, तीर्थंकर नाम और उच्च गोत्र इन सभी छियासठ शुभ प्रकृतियों का शुभ अनुभाग उत्कर्ष से दो छियासठ (६६+६६=१३२) सागरोपम काल तक विनाश नहीं करता है। असम्यग्दृष्टि अर्थात मिथ्यादृष्टि और 'अपि' शब्द से सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभाग का घात नहीं करता है, क्षपण अर्थात क्षय करने के काल को छोड़कर। इस का तात्पर्य है - क्षपणकाल में सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभाग का विनाश करता है। इसलिये क्षपण काल का वर्जन किया गया है। जैसा कि पंचसंग्रह की मूल टीका में कहा है - 'सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभाग का घात नहीं करते हैं किन्तु क्षपक सम्यग्दृष्टि (क्षायिक सम्यग्दृष्टि और क्षपक श्रेणी वाले) उन दोनों ही प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग का विनाश करते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव सभी शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग को संक्लेश से और अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग को विशुद्धि से अन्तर्मुहूर्त के पश्चात अवश्य घात करता है। इस प्रकार जघन्य अनुभागसंक्रम के स्वामित्व का प्रतिपादन करने के प्रसंग में पहले जघन्य अनुभागसंक्रम की संभावना का विचार किया गया। अब जघन्य अनुभागसंक्रम के स्वामित्व का कथन करते अंतरकरणा उवरि जहन्नठिइ संकमो उ जस्स जहिं। घाईणं नियग चरम-रसखंडे (डगे) दिट्ठिमोहदुगे॥५७॥ आऊण जहण्णठिई, बंधिय जावत्थि संकमो ताव। उव्वलणतित्थसंजो - यणा य पढमालियं गंतुं॥५८॥
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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