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________________ ७० ] [ कर्मप्रकृति विशेषार्थ – चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण की, विघ्न अर्थात् अन्तरायकर्म की पांचों प्रकृतियों की और ज्ञानावरण की पांचों प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का संक्रमण करने का स्वामी छद्मस्थ जीव होता है। अर्थात् क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ जीव अपने गुणस्थान का एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रह जाने पर उक्त कर्मों की जघन्य स्थिति का संक्रम करता है तथा निद्राद्विक अर्थात् निद्रा और प्रचला का भी वही क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ अपने गुणस्थान का दो आवलिकाल पूर्ण और तीसरी आवलि का असंख्यातवां भाग शेष रहने पर जघन्य स्थिति के संक्रम का स्वामी होता है। अब वेदक सम्यक्त्व की जघन्य स्थितिसंक्रम के स्वामी का कथन करते हैं - समयाहिगालिगाए, सेसाए वेयगस्स कयकरणे। सक्खवगचरमखंडग - संछुभणा दिट्ठिमोहाणं॥४१॥ शब्दार्थ – समयाहिगालिगाए - समयाधिक आवलिका, सेसाए - शेष रहने पर, वेयगस्सवेदक सम्यक्त्व का, कयकरणे - कृत्त – करण वाला, सक्खवगचरमखंडगसंछुभणा – उस प्रकृति के चरम खंड का प्रक्षेपण करता हुआ, दिट्ठिमोहाणं - दर्शनमोहनीय की प्रकृतियों का। गाथार्थ – सम्यक्त्वमोहनीय की एक समय अधिक आवलिकाल प्रमाण शेष स्थिति में वर्तमान कृतकरण वाला जीव सम्यक्त्वमोहनीय की जघन्य स्थिति के संक्रम का स्वामी होता है तथा दर्शनमोहनीय की शेष रही दोनों (मिथ्यात्व तथा मिश्र) प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के संक्रम का स्वामी उन प्रकृतियों के अपने चरम खंड का संक्रम करने वाला जीव होता है। विशेषार्थ – दर्शनमोहनीय का क्षपक मनुष्य जघन्य से भी आठ वर्ष से ऊपर की आयु में वर्तमान होता हुआ मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय करके सम्यक्त्व मोहनीय को सर्वापवर्तना से अपवर्तित कर सम्यक्त्व का वेदन करता हुआ तदनन्तर क्षपण से शेष सम्यक्त्व के रहने पर कोई जीव चारों गतियों में से किसी एक गति में आ जाता है। इसलिये चारों गतियों में से कोई एक गति वाला जीव सम्यक्त्व को एक समय अधिक आवलि प्रमाण शेष स्थिति में वर्तमान होता हुआ कृतकरण अर्थात् उसके क्षपण करने में उद्यत जीव जघन्य स्थितिसंक्रम का स्वामी होता है। मिथ्यात्व और सम्यगमिथ्यात्व की जघन्य स्थिति के संक्रम करने वाले स्वामी को बतलाने के लिये गाथाओं में कहा गया है - सक्खवगचरमखंडग, इत्यादि अर्थात दर्शनमोहनीय के भेद रूप जो मिथ्यात्व एवं सम्यग्मिथ्यात्व हैं, उनके क्षपण काल में जो चरम खंड का 'संछुभण होता है' अर्थात सर्वापवर्तनाकरण के द्वारा अपवर्तित कर परस्थान में पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र चरम खंड का प्रक्षेपण होता है, उसमें
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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