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________________ कर्मप्रकृति यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिये कि जैसे श्रेणी के आरोहण करने पर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के काल के संख्यातों भाग के व्यतीत हो जाने पर उससे परे (आगे) अतिविशुद्धता होने से मतिज्ञानावरणादि प्रकृतियों का एकस्थानक रसबंध सम्भव है, उसी प्रकार क्षपकश्रेणी के आरोहण करने पर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम, द्विचरम आदि समयों में वर्तमान जीव के अतीव ( अत्यन्त ) विशुद्धता होने से जिसका बंध सम्भव है, ऐसे केवलद्विक (केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण) का एकस्थानक रसबंध कैसे सम्भव नहीं है ? तो इसका कारण यह है कि स्वल्प भी केवलद्विक का रस सर्वघाति ही होता है । सर्वघातिनी प्रकृतियों के जघन्य पद में भी द्विस्थानक रस ही पाया जाता है । ३५ संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि भी शुभ प्रकृतियों का एकस्थानक रस नहीं बांधता है, किन्तु कुछ विशुद्धि को प्राप्त करने वाले मिध्यादृष्टि के ही उसका बंध सम्भव है । अत्यन्त संक्लेशयुक्त मिथ्यादृष्टि के उसका बंध असम्भव है और संक्लेश के उत्कर्ष होने पर शुभ प्रकृतियों में एकस्थानक रसबंध की सम्भावना htar नहीं है तथा जो नरकगति के योग्य वैक्रिय, तेजस आदि शुभप्रकृतियां अति संक्लेशयुक्त मिथ्यादृष्टि के बन्ध को प्राप्त भी होती हैं, उनका भी इस प्रकार का स्वभाव होने से जघन्य पद की अपेक्षा भी द्विस्थानक ही रसबन्ध प्राप्त होता है, एकस्थानक रसबन्ध प्राप्त नहीं होता है । शंका -- कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति मात्र संक्लेश की उत्कर्षता से बंधती है । इसलिये जिन अध्यवसायों के द्वारा शुभ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति होती है, उनके ही द्वारा एकस्थानक रस भी क्यों नहीं होता ? समाधान -- इसका कारण यह है कि यहाँ ( स्थितिबंध के प्रकरण में ) प्रथम स्थिति से प्रारम्भ कर एक-एक समय की वृद्धि से असंख्यात स्थितिविशेष ( स्थिति के भेद ) होते हैं और एक-एक स्थिति में असंख्यात रसस्पर्धक संघातविशेष होते हैं । इसलिये बध्यमान उत्कृष्ट स्थिति में एक-एक स्थितिविशेष पर जो असंख्यात रसस्पर्धक संघात विशेष पाये जाते हैं, वे उतने ही सव द्विस्थानक रस से ही घटित होते हैं, एकस्थानक रस से घटित नहीं होते हैं । इसलिये शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध होने पर भी एकस्थानक रसबन्ध प्राप्त नहीं होता है। कहा भी है शुभ प्रकृतियों का भी उत्कृष्ट स्थितिबंधाध्यवसाय स्थानों के द्वारा एकस्थानक रसंबंध प्राप्त नहीं होता है । क्योंकि स्थितिबंधाध्यवसायस्थानों से अनुभागस्थान असंख्य गुणित होते हैं ।" यहाँ पर सर्वघातिनी और देशघातिनी प्रकृतियों के जो चतुःस्थानक रसवाले या त्रिस्थानक रसवाले स्पर्धक हैं, वे सभी नियम से सर्वघाती ही होते हैं । द्विस्थानकरस वाले स्पर्धक १. इस शंका-समाधान का विशेष आशय परिशिष्ट में स्पष्ट किया है। २. उक्को सठिईअज्झवसाणेह एगठाणिओ होही । सुभियाण तं न जं ठिइ असंखगुणियाओ अणुभागा || - पंचसंग्रह, तृतीय द्वार, गा. ५४ समूह को ३. सर्वजघन्य गुणवाले प्रदेश के अविभाग प्रतिच्छेदों की राशि को वर्ग और समगुण वाले वर्गों के वर्गणा और वर्गणाओं के समूह को स्पर्धक कहते हैं । कर्मस्कन्ध में, उसके अनुभाग में, जीव के कषाय व योग में तथा इसी प्रकार अन्यत्र भी स्पर्धक संज्ञा का ग्रहण किया जाता है। किसी भी द्रव्य के प्रदेशों में अथवा उसकी शक्ति के अंशों में जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त जो क्रमिक वृद्धि या हानि होती है, उसी से यह स्पर्धक उत्पन्न होते हैं ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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