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________________ बंधनकरण अभाव में नहीं बंधती हैं और बधने पर भी अविरति के निमित्त से उद्वेलित हो जाती हैं। मनुष्यद्विक भी तेजस्कायिक और वायुकायिक में गये हुए जीवों के द्वारा उद्वलित कर दी जाती हैं तथा देवायु, नरकायु स्थावर जीवों के, तिर्यंचायु अहमिन्द्रों के और मनुष्यायु तेजस्काय, वायुकाय और सातवें नरक के नारक को सर्वथा ही नहीं बंधने से सत्ता में नहीं पाई जाती हैं। किन्तु अन्य जीवों के इन प्रकृतियों की सत्ता सम्भव भी है। इसीलिये तीर्थंकर आदि उक्त प्रकृतियों को अधव सत्ता वाली कहा गया है। शंका-आयुचतुष्क और तीर्थंकर नाम को छोड़कर अनन्तानबंधीचतुष्क सहित सत्रह प्रकृतियां श्रेणि नहीं चढ़ने पर भी उद्वलन के योग्य कही गई हैं।' इस प्रकार अनन्तानुबंधियों की भी उद्वेलना सम्भव होने से उनको ध वसत्कर्मता (ध वसत्तापना) कैसे सम्भव है ? समाधान-ऐसा मत कहिये, क्योंकि सम्यक्त्व आदि गुणों की अप्राप्ति होने पर कदाचित् होना ही अध्र वसत्ता का लक्षण है। उत्तरगणों की प्राप्ति होने पर सत्ता के अभाव से यदि अध्र वसत्तापना कहा जाये तो सभी प्रकृतियां अध्र वसत्ता वाली हो जायेंगी। इसीलिए अध्र वसत्ता का ऊपर जो लक्षण कहा गया है, वही युक्तिसंगत है। क्योंकि सम्यक्त्व गण के द्वारा उद्वलन की जाने वाली भी अनन्तानुबंधी कषायों का सम्यक्त्व की अप्राप्ति में कादाचित्कपने का अभाव होने से ही ध्र वसत्ताकत्व विना किसी वाधा के माना गया है। ७-८. घातिनी-अघातिनी प्रकृतियां __ स्वविषयं कात्न्येन घ्नन्ति यास्ताः सर्वघातिन्यः---जो प्रकृतियां अपने विषय को सम्पूर्ण रूप से घात करती हैं, वे सब सर्वघातिनी कहलाती हैं। ऐसी प्रकृतियां बीस हैं, जो इस प्रकार हैं--केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, आदि की वारह कषाय, मिथ्यात्व और पांच निद्रायें। ये प्रकृतियां यथायोग्य अपने घातने योग्य ज्ञान, दर्शन, चारित्र और सम्यक्त्व गुण को सम्पूर्ण रूप से घातती हैं । उक्त प्रकृतियों से शेष रही पच्चीस धाति कर्म की प्रकृतियां देशघातिनी ३ हैं। क्योंकि ये ज्ञानादि गुणों के एकदेश का घात करती हैं। उक्त कथन का यह आशय जानना चाहिये कि १. आहारकद्विक, वैक्रियद्विक, नरकद्विक, मनुष्यद्विक, देवद्विक, सम्यक्त्व प्रकृति, मिश्र प्रकृति, उच्च गोत्र, अनन्तानबन्धी कषायें उद्वेलन प्रकृतियां हैं। २. उक्त कथन का स्पष्टीकरण यह है सम्यग्दृष्टि जीवों के ही अनन्तानुबंधी कषायों का उद्वेलन होता है और अध्रुवसत्तापने का विचार उन्हीं जीवों की अपेक्षा किया जाता है, जिन्होंने सम्यक्त्व आदि उत्तर गुणों को प्राप्त नहीं किया है। अतः अनन्तानुबन्धी कषायों को ध्रुवसत्ताका ही मानना चाहिये। यदि उत्तर गुणों की प्राप्ति की अपेक्षा से अध्रुवसताक्त्व को माना जायेगा तो केवल अनन्तानुबंधी कषाय ही अध्रुवसत्ताका नहीं ठहरेंगी, बल्कि सभी प्रकृतियां अध्रुवसत्ताका कहलायेंगी। क्योंकि उत्तर गुणों के होने पर सभी प्रकृतियां अपने-अपने योग्य गणस्थान में सत्ता से विच्छिन्न हो जाती हैं। ३. नाणावरणचउक्कं दसंणतिग नोकसाय विग्धपणं । संजलण देसघाई तइयविगप्पो इमो अन्ने ।। -पंचसंग्रह १३७ ज्ञानाबरणचतुष्क, दर्शनावरणत्रिक, नव नोकषाय, अन्तरायपंचक, संज्वलनकषायचतुष्क ये पच्चीस प्रकृतियां देशघाति हैं । घाति और अघाति प्रकृतियों के विचार के प्रसंग में यह घाति प्रकृतियों का एक अवान्तर तीसरा विकल्प है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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