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बंधनकरण
प्राणियों के शरीरों में कमल आदि की सुरभिगंध की तरह सुरभिगन्ध उत्पन्न होती है, वह सुरभिगंध नामकर्म है, इसके विपरीत दुरभिगंध नामकर्म जानना चाहिये ।
११. रस--रस्यते आस्वाद्यते इति रसः--जिसका स्वाद लिया जाये, उसे रस कहते हैं। यह तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल और मधुर के भेद से पांच प्रकार का है और इनकी उत्पत्ति का कारणभूत नामकर्म भी पांच प्रकार का है। उनमें से--यदुदयाज्जन्तूनां शरीरेषु तिक्तो रसो भवति यथा मरिचादीनां तत्तिक्तरसनाम--जिसके उदय से प्राणियों के शरीरों में मिर्च आदि के समान तिक्त (चिरपरा) रस उत्पन्न होता है, वह तिक्तरस नामकर्म है । इसी प्रकार शेष रस नामकर्मों का भी अर्थ जानना चाहिये।
१२. स्पर्श--स्पृश्यते इति स्पर्शः-जो छुआ जाये, वह स्पर्श कहलाता है। वह कर्कश, मृदु, लघ, गुरु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण के भेद से आठ प्रकार का है । इस स्पर्श का कारणभूत नामकर्म भी आठ भेद वाला है। उनमें से--यदुदयाज्जन्सूनां शरीरेषु पाषाणादीनामिव कार्कश्यं भवति तत्कर्कशस्पर्शनाम-जिसके उदय से प्राणियों के शरीरों में पाषाण आदि के समान कर्कशता उत्पन्न होती है, वह कर्कश नामकर्म है । इसी प्रकार शेष स्पर्श नामकर्मों का भी अर्थ जानना चाहिये ।
१३. आनुपूर्वी-विग्रहेण भवान्तरोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यानुश्रेणिनियता गमनपरिपाट्यानुपूर्वी, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरप्यानुपूर्वी-विग्रह से भवान्तर के उत्पत्तिस्थान को जाते हुए जीव की श्रेणी (आकाश प्रदेशपंक्ति) के अनुसार नियत रूप से जो गमन परिपाटी होती है, उसे आनुपूर्वी कहते हैं और इस प्रकार के विपाक का वेदन कराने वाली कर्मप्रकृति भी आनुपूर्वी कहलाती है। वह चार प्रकार की है- नरकगत्यानपूर्वो, तियंग्गत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपूर्वी ।
१४. विहायोगति'--विहायसा गतिविहायोगतिः--आकाश द्वारा होने वाली गति विहायोगति कहलाती है । प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से वह दो प्रकार की है । हंस, हाथी और बैल आदि की प्रशस्त गति होती है और गर्दभ, ऊंट, भैंसा आदि की अप्रशस्त गति होती है और इसी प्रकार की विपाकवेद्य विहायोगति कर्मप्रकृति भी दो प्रकार की है ।
___ यह पिंडप्रकृतियों का लाक्षणिक अर्थ है, इनके पैंसठ अवान्तर भेद होते हैं। अब क्रमप्राप्त प्रत्येक प्रकृतियों का कथन करते हैं । अप्रतिपक्ष प्रत्येक प्रकृतियां . सप्रतिपक्ष और अप्रतिपक्ष के भेद से प्रत्येक प्रकृतियां दो प्रकार की हैं। इनमें से अल्पवक्तव्य होने से अप्रतिपक्ष प्रकृतियों का कथन करते हैं । जो अगुरुलघु, उपघात, पराघात, १. विहायोगति में विहायस् विशेषण पुनरुक्ति दोष निवारण हेतु दिया गया है । सिर्फ गति शब्द रखने पर नामकर्म
की पहली प्रकृति का नाम भी गति होने से पुनरुक्ति दोष हो सकता था। अतः यहां जीव की चाल अर्थ में गति शब्द को समझने के लिये विहायस शब्द हैं,न कि देवगति, मनुष्यगति आदि के अर्थ में।