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२६८
तदेक देश और अब
तानि अन्यानि ब
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국어
१९.
१८
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१५
૧૪
१३
चतुष्क की अनुकृष्टि का प्रारूप ( स, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक = ४ )
१२ (अनुकृष्टि समाप्त)
११
स्पष्टीकरण गाथा ६४ के अनुसार
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कर्मप्रकृति
14
त्रसचतुष्क में तीन प्रकार की अनुकृष्टि होती है—
(अ) 'तदेकदेश और अन्य ' - असचतुष्क में उत्कृष्ट स्थिति २० कोडाकोडी सागरोपम से अधः अधः आते हुए १८ कोटाकोडी सागरोपम तक 'तदेकदेश और अन्य इस प्रकार की अनुकृष्टि जानना। जिसे प्रारूप के अंकों द्वारा बताया है।
में ३० से २५ तक
(आ) 'तानि अन्यानि च'
इससे आगे (१८ सागरोपम से नीचे सागरोपम शतपृथक्त्व तक ) अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिस्थान तक 'तानि अन्यानि च के क्रम से जानना, जिसे प्रारूप में २४ से १४ तक के अंकों द्वारा बतलाया है।
(इ) 'तदेकदेश और अन्य — इससे नीचे पल्योपम के असंख्यातवें भाग स्थितिस्थानों में 'तदेकदेश और अन्य ' इस क्रम से अनुकृष्टि होती है। जिसे प्रारूप में अंक १३ से ८ तक के अंक द्वारा बतलाया है ।
२५. असत्कल्पना द्वारा तीव्रता - मंदता की स्थापना का प्रारूप
प्रकृतियों में जैसे परावर्तमान, अपरावर्तमान शुभ, अशुभ की अपेक्षा अनुभागबंधस्थानों की अनुकृष्टि का विचार किया गया है, उसी प्रकार से अब उनकी तीव्रता-मंदता का स्पष्टीकरण असत्कल्पना के प्रारूप द्वारा करते हैं । तीव्रता-मंदता का परिज्ञान करने के लिये यह सामान्य नियम है कि सभी प्रकृतियों का अपने-अपने जघन्य अनुभागबंध से आरम्भ कर उत्कृष्ट अनुभागबंध तक प्रत्येक स्थितिबंधस्थान में उत्तरोत्तर अनुक्रम से पूर्वापेक्षा अनन्तगुण, अनन्तगुण अनुभाग समझना चाहिये। लेकिन अशुभ और शुभ प्रकृतियों की अपेक्षा विशेषता इस प्रकार है१. शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिस्थान से प्रारम्भ कर जघन्य स्थितिस्थान तक उत्तरोत्तर नीचे-नीचे अनुक्रम से अनन्तगुण, अनन्तगुण अनुभाग समझना चाहिये ।