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________________ २४४ कर्मप्रकृति विशेषावश्यकभाष्य में वर्गणाओं के विचार का प्रारंभ तो कर्मग्रंथ के अनुरूप है। गाथा ६३३, ३४, ३५ की मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने जो व्याख्या की है, उसका सारांश यह है--यहां वर्गणा शब्द सजातीय समुदाय की अपेक्षा कहा गया होने से सर्व परमाणुओं का संग्रह परमाणु नाम वाली वर्गणा होती है और द्विपरमाणु रूप एक ही वर्गणा में सर्व द्विप्रदेशिक स्कन्धों का संग्रह होता है। लेकिन उसके बाद के वर्णन में भिन्नता है, यथा परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक की अनन्त वर्गणायें औदारिक शरीर के अग्रहणप्रायोग्य हैं, तदनन्तर एक-एक परमाण अधिक स्कन्ध वाली अनन्त वर्गणायें औदारिकशरीर ग्रहणप्रायोग्य हैं । तदनन्तर एक-एक परमाणु अधिक स्कन्ध वाली अनन्त वर्गणायें पुनः औदारिक शरीर के अग्रहणप्रायोग्य हैं । तदनन्तर एक-एक परमाणु अधिक स्कन्ध वाली अनन्त वर्गणायें वैक्रियशरीर के अग्रहणप्रायोग्य हैं । तत्पश्चात् एक-एक परमाणु अधिक स्कन्ध वाली अनन्त वर्गणायें वैक्रियशरीर के ग्रहणप्रायोग्य हैं। तदनन्तर एक-एक परमाणु अधिक स्कन्ध रूप अनन्त वर्गणायें पुन: वैक्रियशरीर के अग्रहणप्रायोग्य हैं । इसप्रकार जीव की ग्रहणप्रायोग्य आठ वर्गणाओं का तीन-तीन रूप से कहने पर चौबीस वर्गणायें इसप्रकार होती हैं १. औदारिक-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, २. औदारिक-ग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, ३. औदारिक-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, ४. वैक्रिय-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, ५. वैक्रिय-ग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, ६. वैक्रिय-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, ७. आहारकअग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, ८. आहारक-ग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, ९. आहारक-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, १०. तेजस्-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, ११. तेजस्-ग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, १२. तेजस्-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, १३. भाषा-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, १४. भाषाग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, १५. भाषा-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, १६. श्वासोच्छ्वास-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, १७. श्वासोच्छ्वासग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, १८. श्वासोच्छ्वास-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, १९. मन-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, २०. मन-ग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, २१. मन-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, २२. कार्मण-अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, २३. कार्मण-ग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा, २४. कार्मणअग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा । विशेषावश्यकभाष्य में दो ग्रहण वर्गणाओं के मध्य में दो अग्रहण वर्गणायें मानी हैं, लेकिन एक ही अग्रहण वर्गणा का जो आधा भाग जिस शरीर आदि के समीप आया है, उस शरीर आदि के नाम की विवक्षा से एक ही अग्रहण वर्गणा का दो-दो नाम से उल्लेख किया है । कर्मग्रंथों एवं पंचसंग्रह और कर्मप्रकृति में इस प्रकार का पार्थक्य न कर ग्रहणवर्गणा के बाद वहां अग्रहण और ग्रहण की अपेक्षा सोलह प्रकार माने हैं। आपेक्षिक कथन होने से विवेचन में किसी प्रकार का अन्तर नहीं समझना चाहिए। इसके अतिरिक्त भाष्यवर्णन में निम्नलिखित अन्तर और है-- २५. प्रथम ध्रुव वर्गणा, २६. अध्रुव वर्गणा, २७. शून्यान्तर वर्गणा, २८. अशन्यान्तर वर्गणा, २९. प्रथम ध्रुवान्तर वर्गणा, ३०. द्वितीय ध्रवान्तर वर्गणा, ३१. तृतीय ध्रुवान्तर वर्गणा, ३२. चतुर्थ ध्रुवान्तर वर्गणा, ३३. औदारिकतनु वर्गणा, ३४. वैक्रियतनु वर्गणा, ३५. आहारकतनु वर्गणा, ३६ तैजस्तनु वर्गणा, ३७. मिश्रस्कन्ध वर्गणा, ३८. अचित्त महास्कन्ध वर्गणा। भाष्य में किये गये वर्गणाओं के वर्णन को गाथा ६३३ से लेकर ६५३ तक देखिये। इन सब वर्गणाओं का अवगाह अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सर्वोत्कृष्ट महास्कन्ध वर्गणा पर्यन्त यद्यपि सभी वर्गणायें परमाणुओं की अपेक्षा अनुक्रम से मोटी हैं और अनुक्रम से मोटी होते जाने पर भी प्रत्येक मल वर्गणा में की एक-एक उत्तर वर्गणा अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण के अवगाह वाली ही है और यदि इन प्रत्येक उत्तर वर्गणाओं में समुदाय की अपेक्षा क्षेत्रावगाह की विवक्षा करें तो परमाण से लेकर सर्वोत्कृष्ट महास्कन्ध वर्गणा तक की सब उत्तर वर्गणायें भी प्रत्येक अनन्तानंत हैं और समुच्चय की अपेक्षा समस्त लोकाकाश प्रमाण अवगाह वाली हैं।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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