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________________ परिशिष्ट २११ ३. बादर और सूक्ष्म नामकर्म का स्पष्टीकरण जिसे आंखें देख सकें, इतना ही बादर का अर्थ नहीं है । क्योंकि एक-एक बादर पृथ्वीकाय आदि का शरीर आंखों से नहीं देखा जा सकता है। किन्तु बादर नामकर्म पृथ्वीकाय आदि जीवों में एक प्रकार के बादर परिणाम को उत्पन्न करता है, जिससे बादर पथ्वीकाय आदि जीवों के शरीरसमुदाय में एक प्रकार की अभिव्यक्ति प्रकट करता है, उससे वे शरीर दृष्टिगोचर होते हैं । यद्यपि बादर नामकर्म जीवविपाकिनी प्रकृति है, किन्तु यह प्रकृति शरीर के पुद्गलों के माध्यम से जीव में बादर परिणाम को उत्पन्न करती है। जिससे वे दृष्टिगोचर होते हैं और जिन्हें इस कर्म का उदय नहीं होता, ऐसे सूक्ष्मजीव समुदाय में एकत्रित हो जायें, तो भी वे दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। बादर नामकर्म को जीवविपाकिनी प्रकृति होने पर भी शरीर के पुदगलों के माध्यम से उसकी अभिव्यक्ति का कारण यह है कि जीवविपाकिनी प्रकृति का शरीर में प्रभाव दिखाना विरुद्ध नहीं है। जैसे क्रोध जीवविपाकिनी प्रकृति है, लेकिन उसका उद्रेक भौंहों का टेड़ा होना, आंखों का लाल होना, ओठों की फड़फड़ाहट इत्यादि परिणामों द्वारा प्रगट रूप में दिखाई देता है। सारांश यह है कि कर्म की शक्ति विचित्र है, इसलिये बादर नामकर्म पृथ्वीकाय आदि जीवों में एक प्रकार के बादर परिणाम को उत्पन्न कर देता है, जिससे उनके शरीरसमुदाय में एक प्रकार की अभिव्यक्ति प्रगट हो जाती है और वे शरीर दृष्टिगोचर होते हैं। ४. पर्याप्त-अपर्याप्त नामकर्म का स्पष्टीकरण टीकरण . ............... ... ... ...... जीव की उस शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं, जिसके द्वारा पुदगलों को ग्रहण करने और उनका आहारनिहार और शरीर आदि के रूप में बदल देने का कार्य होता है। अर्थात पूदगलों के उपचय से को ग्रहण करने तथा परिणमाने की शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं। ............... ...... ...... इहभव सम्बन्धी शरीर का त्याग करने के बाद परभव सम्बन्धी शरीर ग्रहण करने के लिये जीव उत्पत्तिस्थान में पहुंचकर कार्मणशरीर द्वारा जिन पुद्गलों को प्रथम समय में ग्रहण करता है, उनके आहारपर्याप्ति आदि रूप छह विभाग होते हैं और उनके द्वारा एक साथ छहों पर्याप्तियों का बनना प्रारम्भ हो जाता है अर्थात प्रथम समय में ग्रहण किये हुए पुद्गलों के छह भागों में से एक-एक भाग लेकर प्रत्येक पर्याप्ति का बनना प्रारंभ हो जाता है, किन्तु उनकी पूर्णता क्रमशः होती है। इसको एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझा जा सकता है कि जैसे छह सूत कातने वाली स्त्रियों ने एक साथ रूई कातना प्रारम्भ किया, किन्तु उनमें से मोटा सूत कातने वाली जल्दी पूरा कर लेती है और बारीक कातने वाली देर में पूरा करती है। इसी प्रकार पर्याप्तियों का प्रारम्भ तो एक साथ हो जाता है, किन्तु पूर्णता अनुक्रम से होती है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक-इन तीन शरीरों में पर्याप्तियां होती हैं। इनमें इनकी पूर्णता का क्रम इस प्रकार समझना चाहिये-- - औदारिक शरीरवाला जीव पहली पर्याप्ति एक समय में पूर्ण करता है और इसके बाद अन्तर्मुहूर्त में दूसरी, इसके बाद तीसरी। इसी प्रकार क्रमशः अन्तर्मुहूर्त, अन्तर्मुहूर्त के वाद चौथी, पांचवीं, छठी पर्याप्ति पूर्ण करता है। . वैक्रिय और आहारक शरीर वाले जीव पहली पर्याप्ति एक समय में पूर्ण कर लेते हैं और उसके बाद अन्तर्मुहूर्त में दूसरी पर्याप्ति पूर्ण करते हैं और उसके बाद तीसरी, चौथी, पांचवीं और छठी पर्याप्ति अनुक्रम से
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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