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________________ बंधनकरण २०३ १२. उनसे भी उन्हीं परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों के द्विस्थानक रसयवमध्य से ऊपर मिश्र स्थितिस्थान संख्यात गुणित होते हैं । १३. उनसे भी ऊपर एकान्त साकारोपयोगयोग्य स्थितिस्थान संख्यात गुणित होते हैं। १४. उनसे भी उन्हीं परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों के विस्थानक रसयवमध्य से नीचे के स्थिति स्थान संख्यात गुणित होते हैं । १५. उनसे भी उन्हीं परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों के त्रिस्थानक रसयवमध्य के ऊपर के स्थितिस्थान सख्यात गुणित होते हैं । १६. उनसे भी परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों के हो चतुःस्थानक रसयवमध्य से नीचे के स्थितिस्थान संख्यात गुणित हैं । १७. उनसे भी यवमध्य से ऊपर डायस्थिति' संख्यात गुणी होती है। १८. उस डायस्थिति से भी अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति संख्यात गुणी होती है। १९. उससे भी परावर्तमान शुभ प्रकृतियों के द्विस्थानक रसयवमध्य के ऊपर जो मिश्र स्थिति स्थान हैं, उनके ऊपर एकान्त साकारोपयोगयोग्य स्थितिस्थान संख्यात गुणित होत हैं ।। २०. उनसे भी परावर्तमान शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेषाधिक होता है । २१. उससे भी अशुभ परावर्तमान प्रकृतियों की बद्ध डायस्थिति विशेषाधिक होती है । क्योंकि जिस स्थितिस्थान से 'मांडूकप्लुति न्याय' से अर्थात् मेंढक के कूदने के समान दीर्घ (लंबी) छलांग देकर जो स्थिति बांधी जाती है, यहाँ से लेकर वहाँ तक की वह स्थिति यहाँ पर १. जिस स्थितिस्थान से अपवर्तनाकरण के द्वारा उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है, उतनी स्थिति को 'डायस्थिति' कहते हैं-'यतः स्थितिस्थानादपवर्तनाकरणवशेनोत्कृष्टां स्थिति याति तावती स्थिति यस्थितिरित्युच्यते।'-कर्मप्रकृति, आ. मलयगिरि टोका। इसका आशय यह है कि उत्कृष्ट स्थिति को अपवर्तनाकरण के द्वारा अपवर्तित कर जो उत्कृष्ट स्थिति हो, वह अपवर्तना द्वारा की गई उत्कृष्ट स्थिति कहलाती है। जैसे कि १०० समयात्मक उत्कृष्ट स्थिति को अपवर्तित करके ११ से ९० समय तक की तो, उसमें १०० समय की स्थिति को अपवर्तित करके ११ समयात्मक करना अपवर्तनाकरण द्वारा की गई जघन्य स्थिति और १२ से लेकर ८९ समयों तक में कोई भी स्थिति मध्यम स्थिति कहलायेगी और इसी १०० समय की स्थिति को ९० समयात्मक करना यह 'अपवर्तनाकरण द्वारा उत्कृष्ट स्थिति की' कहा जायेगा। यहाँ विवक्षित यवमध्य से ऊपर के स्थितिस्थानों में जो उत्कृष्ट स्थिति की, उसका ग्रहण करना चाहिये, किन्तु समग्र का ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि समग्र से तो किंचिदून कर्मस्थिति प्रमाण अंतर पड़कर अन्तःकोडाकोडी सागर जितनी होती है । जिससे अंतर बड़ा हो जाता है और यहाँ तो लघु अंतर ग्रहण करना है। जैसे कि १०० समयात्मक उत्कृष्ट स्थिति की अपवर्तना द्वारा ९० समयात्मक जो उत्कृष्ट स्थिति की, जिसमें ९१ से १०० तक की १० स्थितियां अपवर्तना द्वारा की गई उत्कृष्ट स्थिति की डायस्थिति की कहलायेंगी ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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