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________________ बंधनकरण जायेगा । अर्थात् अभी तक जिन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध बताया है और आगे भी जिनका वतलाने वाले हैं, उन सबका अबाधाकाल भिन्नमहूर्त समझना चाहिये ।' अव आयुकर्म के भेदों और अन्य प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का प्रतिपादन करते है-- खुड्डागभवो आउसु, उववायाउसु समा दससहस्सा । उक्कोसा. संखेज्जा-गुणहीण ... आहारतित्थयरे ॥७॥ शब्दार्थ-खुड्डागभवो-क्षुद्रकभव प्रमाण, आउसु-मनुष्य, तिर्यचायु की, उववायाउसु-उपपात आयुवालों (देव-नारक ) की, समा-वर्ष, दससहस्सा-दस हजार, उक्कोसा-उत्कृष्ट से, संखेज्जासंख्यात, गुणहीण-गुणहीन, आहारतित्थयरे-आहारकद्विक और तीर्थंकर नाम की । गाथार्थ--मनुष्य और तिर्यंचायु की जघन्य स्थिति क्षुद्रकभव (क्षुल्लकभव)प्रमाण है। औपपातिक देव और नारकियों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और आहारकद्विक एवं तीर्थंकर प्रकृति की जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति से संख्यात गुणहीन होती है। .. विशेषार्थ--'खुड्डागभवो त्ति'-अर्थात् तिर्यंचायु और मनुष्यायु की जघन्य स्थिति क्षुल्लकभव प्रमाण है। क्षुल्लकभव का क्या प्रमाण है ? तो उसका प्रमाण कुछ अधिक दो सौ छप्पन (२५६ ) आवलिका प्रमाण है। अब इसी बात का स्पष्टीकरण करते हैं--एक मुहूर्त दो घटिका प्रमाण होता है, उसमें हृष्ट-पुष्ट और निरोग जीव के तीन हजार सात सौ तिहत्तर (३७७३) प्राणापान १. यहां जघन्य अबाधा अन्तर्मुहुर्त प्रमाण बताई है। जघन्य स्थितिबंध में जो अबाधाकाल होता है, उसे जघन्य अबाधा और उत्कृष्ट स्थितिबंध में जो अबाधाकाल होता है, उसे उत्कृष्ट अबाधा कहते हैं। किन्तु यह परिभाषा आयु के अतिरिक्त शेष सात कर्मों तक सीमित है, जिनकी अबाधा स्थिति के प्रतिभाग के अनुसार होती है। लेकिन आयुकर्म की तो उत्कृष्ट स्थिति में भी जघन्य अबाधा हो सकती है और जघन्य स्थिति में भी उत्कृष्ट अबाधा हो सकती है। क्योंकि उसका अबाधाकाल स्थिति के प्रतिभाग के अनुसार नहीं होता है, जैसा कि ऊपर संकेत किया है। अतः आयुकर्म की अबाधा के चार विकल्प होते हैं-१. उत्कृष्ट स्थितिबंध में उत्कृष्ट अबाधा, २. उत्कृष्ट स्थितिबंध में जघन्य अबाधा, ३. जघन्य स्थितिबंध में उत्कृष्ट अबाधा और ४. जघन्य स्थितिबंध में जघन्य अबाधा । इन विकल्पों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जब कोई मनुष्य अपनी पूर्वकोटि की आयु में तीसरा भाग शेष रहने पर तेतीस सागर की आयु बांधता है, तब उत्कृष्ट स्थितिबंध में उत्कृष्ट अबाधा होती है और यदि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु शेष रहने पर तेतीस सागर की स्थिति बांधता है तो उत्कृष्ट स्थितिबंध में जघन्य अबाधा होती है तथा जब कोई मनुष्य एक पूर्वकोटि वर्ष का तीसरा भाग शेष रहते हुए परभव की जघन्य स्थिति बांधता है जो अन्तर्महर्त प्रमाण भी हो सकती है, तब जघन्य स्थिति में उत्कृष्ट अबाधा होती है और यदि अन्तमहर्त प्रमाण स्थिति शेष रहने पर परभव की अन्तर्मुहर्त प्रमाण स्थिति बांधता है, तो जघन्य स्थिति में जघन्य अबाधा होती है। अत: आयुर्म की उत्कृष्ट स्थिति में भी जघन्य अबाधा हो सकती है और जघन्य स्थिति में भी उत्कृष्ट अबाधा हो सकती है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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