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________________ भी अनुक्त हैं और शेष का कथन किया जा चुका है । अतएव वे भी उत्तरोत्तर अनन्त गुणित क्रम से उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक कहना चाहिये । __इसी प्रकार (असातावेदनीय के अनुभाग की तीव्रता-मंदता के अनुरूप) नरकगति, नरकानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति को छोड़ कर शेष चार जाति, प्रथम संस्थान और प्रथम संहनन को छोड़कर शेष पांच संस्थान और पांच संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीर्ति, इन सत्ताईस प्रकृतियों की तीव्रता-मंदता कहना चाहिये । ... अब तियंचगति के अनुभाग की तीव्रता-मंदता का कथन करते हैं सप्तम पृथ्वी में वर्तमान नारकी के सर्व जघन्य स्थितिस्थान के जघन्य पद में जघन्य अनुभाग सबसे कम होता है, उससे द्वितीय स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा होता है, उससे तृतीय स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा होता है, इस प्रकार निवर्तनकंडक व्यतीत होने तक कहना चाहिये । उससे जघन्य स्थिति के उत्कृष्ट पद में उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा होता है, उससे निवर्तनकंडक के ऊपरं प्रथम स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा होता है, उससे द्वितीय स्थिति में उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा होता है। उससे कंडक के ऊपर द्वितीय स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा होता है । उससे तृतीय स्थिति में उत्कृष्ट अनुभाग अनन्त गुणा होता है। इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक अभव्यप्रायोग्य जघन्य अनुभागबंध के नीचे चरम स्थिति प्राप्त होती है। ' अभव्यप्रायोग्य जघन्य अनुभागबंध के नीचे कंडकप्रमाण स्थितियों का उत्कृष्ट अनुभाग अभी भी अनुक्त है और शेष कह दिया गया है । अब उस अनुक्त अनुभाग का कथन करते हैं, उससे. अभव्यप्रायोग्य जघन्य अनुभाग विषयक प्रथम स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा · होता है, द्वितीय स्थिति में जघन्य अनुभाग उतना ही होता है, तृतीय स्थिति में भी जघन्य अनुभाग उतना ही होता है । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण स्थितियां व्यतीत होती है । इन स्थितियों का पूर्व पुरुषों ने 'परावर्तमानजघन्यअनुभागबंधप्रायोग्य' यह नाम दिया है । इन स्थितियों के ऊपर प्रथम स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा होता है, उससे भी द्वितीय स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा होता है । उससे भी तृतीय स्थिति में जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा होता है। इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक निवर्तनकंडक के असंख्यात बहुभाग व्यतीत होते हैं और एक भाग शेष रहता है । -- तत्पश्चात् जिस स्थितिस्थान से उत्कृष्ट अनुभाग कहकर निवृत्त हुए थे, उससे उपरितन स्थितिस्थान में उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा होता है, उससे भी उपरितन द्वितीय स्थितिस्थान में उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा होता है, उससे भी तृतीय स्थितिस्थान में उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा होता है । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक अभन्यप्रायोग्य जघन्य अनुभागबंध के नीचे की चरम स्थिति प्राप्त होतो. है । . .. . ..
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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