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असंख्यातवां भाग मात्र जानना चाहिये। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आदि की पांच वृद्धि और पांच हानि को जीव निरन्तर अपने परिणामविशेष से प्रतिसमय आवलिका के. असंख्यातवें भाव मात्र काल तक बांधते हैं।' ____ यह हानि और वृद्धि के काल का निरूपण उत्कृष्ट की अपेक्षा जानना चाहिये और जघन्य से समस्त वृद्धि और हानियों का काल एक या दो समय प्रमाण समझना चाहिये।
अब इन अनुभागस्थानों में बंध का आश्रय करके अवस्थान का काल प्रमाण कहते हैंसमयप्ररूपणा
चउराई जावट्ठा मेतो जावं दुर्गतिसमयागं ।
ठाणामं उनकोसो जहम्णयो सहि समयो॥३९॥ शब्दार्थ-चउराई-चार समय से लेकर, जाव-यावत, तक, अट्ठगं-आठ समय, एत्तो-यहां से आगे, जावं-यावत्, दुगंति-दो, समयाणं-समय प्रमाण, ठाणाण-स्थानों का, उक्कोसो-उत्कृष्ट, जहण्णओजघन्य से, सहि-सबका, समओ-एक समय ।
गाथार्थ-अनुभागस्थानों का चार समय से लेकर आठ समय तक और यहाँ से (आठ समय से) लेकर दो समय प्रमाण उत्कृष्ट काल है और जघन्य से सभी अनुभागस्थान एक समय की स्थिति वाले हैं।
विशेषार्थ-चार (कर की संख्या) जिस वृद्धि की आदि में हो उसे खतुरादि वृद्धि कहते हैं। वह चतुरादि समय पाली वृद्धि अवस्थित काल की नियामक रूप से आठ समय तक जानना चाहिये । पुनः इससे आये समयों की हानि कहना चाहिये और वह हानि दो समय तक कहना चाहिये। यह चतुरादि समय वाली वृद्धि और हानि अनुभागबंधस्थानों की उत्कृष्ट रूप से जानना चाहिये । जघन्य रूप से तो सभी हानियों और बृद्धियों का काल एक समय मात्र है ।
उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि जिन अनुभागबंधस्थानों को जीव पुनः-पुनः उन्हें ही चार समय तक बांधते हैं, वे अनुभागबंधस्थान चतुःसामयिक कहलाते हैं । ऐसे चतुःसायिक अनुभागबंधस्थान मूल से आरंभ करके असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों की राशि प्रमाण होते हैं । उनसे भी उपरितन अनुभागबंधस्थान पंचसामयिक होते हैं, वे भी असंख्याप्त लोकाकाश प्रदेश १. जीव जिस तरह के अनुभागाध्यवसाय में रहता है, तदनुरूप रस वाले कर्मप्रदेशों का बंध करता है। इस
बात को बताने के लिए यहाँ 'बांधते हैं' शब्द का प्रयोग किया है। २. यहां चतुरादि विशेषण सिर्फ वृद्धि में आयोजित करना चाहिये अर्थात् वृद्धि तो ऋतुरादि समय गावी जानना
चाहिये और हानि तो अष्टादि विशेषण युक्त स्वयं समझ मेवा वाहिये।...