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बंधनकरण
शब्दार्थ-पिंडपगईसु-पिंड प्रकृतियों में, बझंतिगाण-बध्यमान में, वण्णरसगंधफासाणं-वर्ण, रस, गंध और स्पर्श में, सव्वासिं-सर्वभेदों में, संघाए-संघात में, तणुम्मि-शरीर में, य-और, तिगे-तीन भाग में, चउक्के-चार भाग में, वा-अथवा।
गाथार्थ-नामकर्म को प्राप्त मूल भाग बध्यमान पिंड प्रकृतियों में, वर्ण, रस, गंध और स्पर्श में, सभी संघातनों में तथा तीन या चार शरीरों में विभाजित होता है।
विशेषार्थ-पिंडप्रकृतियां यानी नामकर्म की प्रकृतियां। जैसा कि चूणिकार ने कहा है-पिंडपगईओ नामपगइओ। उनके मध्य में बंधने वाली किसी एक मति, जाति, शरीर, बंधन, संघातन, संहनन, संस्थान, अंगोपांग और आनुपूर्वी का तथा वर्ण, गंव, रस, स्पर्श, अंगुरु नवु, उपघात, पराघात, उच्छवास, निर्माण और तीर्थंकर का तथा आतप, उद्योत, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति, वस-स्थावर, बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त, प्रत्येक-साधारण, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वरदुःस्वर, सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशःकोति-अयशःकीति, इन युगलों में से किसी एक-एक में प्राप्त मलभाग का विभाग करके देना चाहिये। लेकिन यहाँ जो विशेष है, उसे स्पष्ट करते हैं कि “वण्णेत्यादि" वर्ण, गंध, रस, स्पर्शों में से प्रत्येक को जो भाग प्राप्त होता है, वह सब उनके अवान्तर भेदों को विभाग कर-करके दिया जाता है। जैसे कि वर्ण नामकर्म को जो भाग प्राप्त होता है, उसके पांच भाग करके शक्ल आदि पांचों अवान्तर भेदों को विभाग करके दिया जाता है। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्शों के भी जिसके जितने अवान्तर भेद है, उसके उतने विभाग करके अवान्तर भेदों को देना चाहिये तथा संघातन और शरीर नामकर्म में प्रत्येक को जो दलिकभाग प्राप्त होता है, उसके तीन या चार विभा। करके तीन या चार संघातनों और शरीरों को दिया जाता है। अर्थात् औदारिक, तेजस, कार्मण अथवा वैक्रिय, तेजस, कार्मण इन तीन शरीरों और संघातनों को एक साथ बांधते हुए तीन भाग किये जाते हैं और वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण रूप चार शरीर और चार संघातनों को बांधो हुए चार भाग किये जाते हैं।
सकारविगप्पा, बंधण माण मलपगईणं ।
उत्तरसगपगईण य, अप्पबहुत्ता विसेसो सि ॥२८॥ शब्दार्थ--सत्तेक्कारविगप्पा-सात अथवा मारह विकल, बंधणनामाण-बंधन नामकर्म की, मूलपगईणं-मूल प्रकृति के दलिकों के, उत्तरसगपगईणं-स्व-उत्तर प्रकृतियों का, य-और, अप्पबहुत्ता-अल्पबहुत्व की, विसेसो-विशेषता, सि-इमें (मूतप्रकृतियों में)।
... गाथार्थ-बंधननामकर्म की मल प्रकृति को प्राप्त दलिकों के सात अथवा ग्यारह विकल्प किये जाते हैं। अब इन मूल प्रकृतियों में अपनी-अपनी उत्तरप्रकृतियों का अल्पबहुत्व संबंधी जो विशेष भेद है, उसको कहते हैं।
. विशेषार्थ-बंधननामकर्म को जो दलिकभाग प्राप्त होता है, उसके सात विकल्प अर्थात् सात भेद अथवा ग्यारह विकल्प किये जाते हैं। उनमें से १. औदारिक-औदारिक २. औदारिक-तैजस, ३. औदारिक-कार्मण, , . औदारिक-तंजसकार्मण, ५. तेजस-तैजस, ६. तेजस-कार्मण ७. कार्मण