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कर्मप्रकृति
३. प्रकृष्ट योग को प्रयोग कहते हैं, इस प्रयोगप्रत्ययभूत, कारणभूत प्रकृष्ट योग के द्वारा ग्रहण किये गये जो पुद्गल हैं, उनके स्नेह का आश्रय करके जो स्पर्धकप्ररूपणा की जाती है, उसे प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा कहते हैं--प्रकृष्टो योगः प्रयोगस्तेन प्रत्ययभूतेन कारणभूतेन ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां स्नेहमधिकृत्य स्पर्धकप्ररूपणा. प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा।' .
उक्त तीन प्ररूपणाओं में से पहले स्नेहप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा करने के लिए गाथासूत्र कहते हैं । स्नेहप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा -
नेहप्पच्चयफड्डगमेगं अविभागवग्गणा णंता।
हस्सेण बहू बद्धा असंखलोगे दुगुणहीणा ॥२२॥ . शब्दार्थ-नेहप्पच्चय-स्नेहप्रत्यय, फड्डगं-स्पर्धक, एग-एक, अविभागवग्गणा-अविभाग वर्गणा, गंता-अनन्त, हस्सेण-अल्प, बहू-अधिक, बद्धा-बंधे हुए (युक्त), असंखलोगे-असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण, दुगुणहीणा-द्विगणहीन।
गाथार्थ-एक स्नेहप्रत्ययस्पर्धक में अविभाग वर्गणायें अनन्त होती हैं तथा अल्प स्नेहयुक्त पुद्गल अधिक है और असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण वर्गणाओं का अतिक्रमण करने पर जो जो वर्गणायें आती हैं, उनमें द्विगुणहीन, द्विगुणहीन पुद्गल होते हैं।
विशेषार्थ-स्नेहप्रत्यय अर्थात् स्नेहनिमित्तक एक-एक स्नेह अविभाग अंश से बढ़ने वाली पुद्गल वर्गणाओं के समुदाय को एक स्नेहप्रत्ययस्पर्धक कहते हैं-स्नेहप्रत्ययं, स्नेहनिमित्तमेकंकस्नेहाविभागवृद्धानां पुद्गलवर्गणानां समुदायरूपं स्पर्धकम् ।' उस स्पर्धक में अविभाग वर्गणायें एक-एक स्नेह के अविभाग अंश से अधिक पदगल परमाणओं के समदाय रूप अनन्त होती हैं। उनमें ह्रस्व अर्थात अल्प स्नेह से जो पदगल बद्ध हैं, वे बहत होते हैं और बहत स्नेह से बंधे हए पुद्गल अल्प होते हैं तथा असंख्यात लोक पर दुगुणहीन परमाणु पुद्गल होते हैं। इसका यह अर्थ है कि आदिवर्गण
णा स पर (आगे) असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण वर्गणाओं के उल्लंघन करने पर जो अगली वर्गणा प्राप्त होती है, उसमें पुद्गल परमाणु आदि वर्गणा सम्बन्धी पुद्गल परमाणुओं की अपेक्षा दुगुणहीन अर्थात् आधे होते हैं। इससे आगे पुनः असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण वर्गणाओं का उल्लंघन करने पर प्राप्त होने वाली अगली वर्गणा में पुदगल परमाण द्विगुणहीन प्राप्त होते हैं। इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक कि आगे कही जाने वाली असंख्यात भागहानि की अंतिम वर्गणा प्राप्त होती है। १. स्नेहप्रत्यय, नामप्रत्यय और प्रयोगप्रत्यय प्ररूपणाओं के लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं
१. लोकवर्ती प्रथम अग्राह्य पुद्गल द्रव्यों में स्निग्धपने की तरतमता कहना स्नेहप्रत्ययप्ररूपणा है। २. पांच शरीर रूप परिणमते पुद्गलों में स्निग्धपने की तरतमता बताना नामप्रत्ययप्ररूपणा है और ३. उत्कृष्ट योग से ग्रहण
होने वाले पुद्गलों में स्निग्धता की तरतमता कहना प्रयोगप्रत्ययप्ररूपणा है।... '२. स्नेहप्रत्ययस्पर्धक-जिस स्पर्धकप्ररूपणा में मात्र स्नेह यही निमित्तभत है, उसे स्नेहप्रत्ययस्पर्धक कहते हैं। ३. यहाँ पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करने का कारण यह है कि स्नेहादि पर्याय की वक्तव्यता एक-एक प्रदेश
और परमाणु में ही हो सकती है और परमाणु ही वस्तुतः पुद्गल द्रव्य है और स्कन्धादि तो परमाणु पुद्गल ___ की पर्याय हैं। इसलिये स्नेहाविभागादि की विवक्षा परमाणु में ही संभव है।