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कर्मप्रकृति
जीव के द्वारा ग्रहण की जाने वाली वर्गणाओं में से आहारक शरीर के योग्य वर्गणाओं तक सभी वर्गणायें पांच रस, पांच वर्ण, आठ स्पर्श और दो गंध से परिणत होती हैं, किन्तु इससे ऊपर की तेजस आदि वर्गणायें चार स्पर्श से विशिष्ट होती हैं ।
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औदारिक वर्गणायें प्रदेशगणना की अपेक्षा सबसे कम हैं ।" उनसे वैक्रियशरीर के योग्य वर्गणायें अनन्तगुणी हैं। उनसे आहारक शरीर के योग्य वर्गणायें अनन्तगुणी होती हैं। इसी प्रकार तैजस, भाषा, प्राणापान, मन और कर्म के प्रायोग्य वर्गणायें भी उत्तरोत्तर अनन्तगुणी कहना चाहिये । ध्रुव, अध्रुव आदि वर्गणाओं का वर्णन
अव गाथोक्त ध्रुव, अध्रुव इत्यादि पदों का अर्थ कहते हैं कि कर्मप्रायोग्य उत्कृष्ट वर्गणा के अनन्तर ध्रुव-अचित्तद्रव्यवर्गणायें होती हैं । तदनन्तर अध्रुव - अचित्तद्रव्यवर्गणायें प्राप्त होती हैं । इनके अनन्तर 'सुन्ना चउ' चार शून्य वर्गणाओं के अन्तराल में आगे यथाक्रम से प्रत्येकशरीरवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा तथा महास्कन्धवर्गणा होती हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-
प्रथम ध्रुवशून्यवर्गणा के ऊपर प्रत्येकशरीरीवर्गणा होती है । द्वितीय ध्रुवशून्यवर्गणा के ऊपर वादर निगोदवर्गणा, तीसरी ध्रुवशून्यवर्गणा के ऊपर सूक्ष्मनिगोदवर्गणा और चौथी ध्रुवशून्यवर्गणा के ऊपर महास्कन्धवर्गणा होती है ।
इनमें कर्मप्रायोग्य उत्कृष्ट वर्गणाओं के अनन्तर एक परमाणु अधिक स्कन्धरूप जघन्य ध्रुव-अचित्तद्रव्यवर्गणा होती है। उससे एक-एक परमाणु अधिक स्कन्धरूप दूसरी आदि ध्रुव-अचित्तद्रव्यवर्गणायें तब तक कहना चाहिये, जब तक कि उत्कृष्ट ध्रुव-अचित्त द्रव्यवर्गणा प्राप्त होती है । ध्रुव-अतिद्रव्यवर्गणा वे कहलाती हैं जो लोक में सदैव पाई जाती हैं। जो इस प्रकार समझना चाहिए कि इन ध्रुव - अचित्तद्रव्यवर्गणाओं के मध्य में कई अन्य वर्गणायें उत्पन्न होती हैं और कई अन्य वर्गणायें विनष्ट होती हैं, फिर भी इनकी यथास्थित संख्या की किसी एक भी वर्गणा से लोक कदाचित् भी रहित नहीं होता है और इन वर्गणाओं को जीव ने कभी भी ग्रहण नहीं किया है, इसलिये इनका अचित्तपना जानना चाहिये । जीव के द्वारा ग्रहण करने से तो औदारिकादि वर्गणाओंवत् कथंचित् सचित्तपना भी सम्भव हो जाता है । जघन्य ध्रुव - अचित्तद्रव्यवर्गणा से उत्कृष्ट वर्गण गुणी होती है । गुणाकार सर्व जीवों से अनन्तगुणी राशि प्रमाण जानना चाहिये ।
१. शेष वैक्रियशरीर आदि वर्गणाओं से ।
२. ग्रहण- प्रायोग्य उत्कृष्ट वर्गणागत प्रदेशराशि से अनन्तगुण अग्रहण वर्गणायें अन्तराल में होने से औदारिकवर्गणा की अपेक्षा वैक्रियवर्गणा में अनन्तगुणे प्रदेश होते हैं। इसी प्रकार अन्य वर्गणाओं के लिये उत्तरोत्तर क्रम से समझ लेना चाहिये ।
३. इस कथन का आशय यह है
जैसे औदारिक आदि शरीर को जीव के संबंध से कथंचित् सचित्तपना होता है, परन्तु सर्वथा सचित्तपना नहीं होता है। उसी प्रकार इन वर्गणाओं का भी यदि जीव के साथ सम्बन्ध हो तो कथंचित् सचित्तपना कहा जा सकता है । परन्तु जब जीव का इनके साथ सम्बन्ध ही नहीं होता है तो कथंचित् सचित्तपना भी कैसे संभव है ? अर्थात् जीव के साथ इनके सम्बन्ध का अभाव होने से ये वर्गणायें सर्वदा अचित्त ही हैं ।