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________________ कर्मप्रकृति जीव द्वारा प्राह्मवर्गणा का परिमाण .. ये सभी वर्गणायें अर्थात् मूल से एक प्रदेशी वर्गणा से लेकर अनन्त प्रदेशी वर्गणाओं तकअल्प परमाणु एवं स्थूल परिमाण वाली होने से जीवों के अग्रहणयोग्य हैं । अर्थात ये सभी वर्गणायें अनन्तानन्त परमाणुओं की समुदायात्मक होने पर भी जीवों के द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। किन्तु जो वर्गणायें अभव्यों से अनन्त गुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण परमाणुओं की समुदायात्मक हैं, वे 'आहारगवग्गणा' अर्थात् आहरण-ग्रहण करने के योग्य वर्गणा होती हैं। 'आहारगवग्गणा' इस पद का पदच्छेद इस प्रकार है-आहरण करने अर्थात् ग्रहण करने को आहार कहते हैं और आहार ही आहारक कहलाता है। अतः आहार अर्थात् ग्रहण करने के योग्य जो वर्गणायें होती हैं, वे आहार । आहारक वर्गणा कहलाती हैं। वे किस विषय को ग्रहण करने वाली हैं ? तो इस बात को स्पष्ट करने के लिये गाथा में .'तितण' यह पद दिया है कि वे औदारिक, वैक्रिय और आहारक-इन तीन शरीर रूप से परिणमित होने वाले परमाणुओं को ग्रहण करने रूप विषय वाली. हैं। . . . जीव ग्रहण-प्रायोग्य वर्गणायें ये वर्गणायें (औदारिक, वैक्रिय और आहारक वर्गणायें) तथा तेजस, भाषा, प्राणापान, मन और कर्म विषयक जो वर्गणायें होती हैं, वे अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणाओं से अन्तरित होती हुई ग्रहणप्रायोग्य होती हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैऔदारिकशरीरवर्गणा .. . ... . ..... . अभव्य जीवों से अनन्त गुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण परमाणुओं की समुदाय रूप वर्गणा औदारिक शरीर के निष्पादन करने के लिये ग्रहणप्रायोग्य होती है, जो जघन्य वर्गणा है। उससे एक परमाणु अधिक स्कन्ध रूप दूसरी ग्रहणप्रायोग्य वर्गणा होती है। उससे दो परमाणुओं से अधिक स्कन्ध रूप तीसरी वर्गणा होती है। इस प्रकार एक-एक परमाण से अधिक स्कन्ध रूप वर्गणायें तब तक कहना चाहिये, जब तक कि औदारिकशरीर-प्रायोग्य उत्कृष्ट ग्रहणवर्गणा प्राप्त होती है । औदारिकप्रायोग्य जघन्य ग्रहणवर्गणा से उत्कृष्ट ग्रहणवर्गणा विशेष अधिक परमाणुओं वाली होती है। यह विशेष भी उसी वर्गणा ( औदारिकप्रायोग्य ) को जघन्य वर्गणा के परमाणुओं का अनन्तवां भाग जितना है। - औदारिकशरीर-प्रायोग्य उत्कृष्ट ग्रहणवर्गणा से एक परमाण अधिक स्कन्ध रूप वर्गणा अग्रहणप्रायोग्य वर्गणा होती है। यह अग्रहणप्रायोग्य जघन्य वर्गणा है। उससे दो परमाणु अधिक स्कन्ध रूप दूसरी अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा होती है। इसी प्रकार एक-एक परमाणु अधिक-अधिक स्कन्धों की अग्रहण वर्गणायें तब तक कहना चाहिये, जब तक कि उत्कृष्ट अग्रहण-प्रायोग्य वर्गणा प्राप्त होती है। ये वर्गणायें जघन्य की अपेक्षा अनन्तगुणी हैं। यहाँ पर गुणाकार का तात्पर्य अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग राशि प्रमाण जानना चाहिये। जितना है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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