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________________ ५८ कर्मप्रकृति इस प्रकार स्थान प्ररूपणा जानना चाहिये । अव अवसर प्राप्त अनन्तरोपनिधा -प्ररूपणा करते हैं। उपनिधान को उपनिधा कहते हैं-उपनिधानमुपनिधा । धातुओं के अनेकार्थक होने से यहाँ उपनिधा का अर्थ मार्गण अर्थात् अन्वेषण करना है । अतः अनन्तर से उपनिधा करने, मार्गण, अन्वेषण करने को अन्नतरोपनिधा कहते हैं । अर्थात् अनन्तर योगस्थान से उत्तर (आगे) के योगस्थान में स्पर्धकों की संख्या का मार्गण करना अनन्तरोपनिधा कहलाती है--अनन्तरेणोपनिधाऽनन्तरोपनिधा, अनन्तराद्योगस्थानादुत्तरयोगस्थाने स्पर्धकसंख्यामार्गणमित्यर्थः। जिसका स्पष्टीकरण यहाँ करते हैं-- - इस पूर्वोक्त प्रथम योगस्थान से द्वितीय आदि योगस्थानों में से प्रत्येक योगस्थान पर स्पर्धकों की वद्धि अगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है । अर्थात् अंगुल प्रमाण क्षेत्र संबंधी असंख्यातवें भाग में जितने प्रदेश होते हैं, उतने स्पर्धक पूर्व-पूर्व योगस्थान सम्वन्धी स्पर्धकों की अपेक्षा उत्तरोत्तर योगस्थान पर अधिक होते हैं ।। उक्त कथन का यह भाव है कि प्रथम योगस्थान की वर्गणाओं से दूसरे योगस्थान गत वर्गणायें मूलतः ही हीन प्रदेशवाली होती हैं। क्योंकि अधिक और अधिकतर वीर्यवाले जीवप्रदेश अल्प, अल्पतर रूप में ही पाये जाते हैं । अतएव यहाँ आदि से ही वर्गणाओं के अल्पप्रदेशतय अधिक अवकाश होने से और अनेक प्रकार की विचित्र वर्गणाओं की अधिकता सम्भव होने से ऊपर कहे गये रूप में स्पर्धकों की अधिकता संगत होती है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर योगस्थानों में स्पर्धकों की अधिकता जानना चाहिये । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा का विचार किया जा चुका है। अब क्रमप्राप्त परंपरा से मार्गण रूप परम्परोपनिधा-प्ररूपणा का कथन करते हैं। परंपरोपनिधा-प्ररूपणा सेढिअसंखियभागं, गंतुं गंतु हवंति दुगुणाई । पल्लासंखियभागो, नाणागुण हाणिठाणाणि ॥१०॥ _शब्दार्थ-सेढिअसंखियभाग-श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण, गंतु-गंतुं-जाने-पर, हवंतिहोते हैं, दुगुणाई-दुगुने, पल्लासंखियभागो-पल्य के असंख्यातवें भाग, नाणागुणहानि-नाना गुणहानि, ठाणाणि-स्थान । गाथार्थ--प्रथम योगस्थान से लेकर श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थानों का अतिक्रमण करके आगे जाने पर जो योगस्थान आते हैं, उन योगस्थानों में द्वि-गुणित-द्वि-गुणित स्पर्धक होते हैं । इसी प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान से वापस पीछे हटते हुए नाना गुणहानि रूप स्पर्धक होते हैं । विशेषार्थ--प्रथम योगस्थान से लेकर श्रेणी के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश हैं, उतने प्रमाण योगस्थानों के अतिक्रमण करने पर जो पर योगस्थान है, वहाँ-वहाँ पर पूर्वस्थान की अपेक्षा स्पर्धक दुगुने हो जाते हैं । जिसका स्पष्टीकरण यह है--
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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