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भगवान श्री गौतमस्वामी
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैन धर्मोस्तु मंगलम् ॥
हमारे प्रत्येक मंगलाचरणमें भगवान् महावीरके नामके पश्चात् यदि किसी का भी नाम लिया जाता है, तो वह 'गौतमस्वामी' का है ।
निज आत्माकी साधनामें रत हमारे आचार्यवरके अलिप्तताकी यह देन है, कि उन्होंने स्वयंके बारेमें कहीं तनिक भी नहीं लिखा। फिर भी उनके पश्चात् होनेवाली आचार्यों परम्परासे जो कुछ भी आपके जीवन संबंधित जानकारी मिलती है, वह अति अल्प है। इसमें हमारा हतभाग्य ही कारण है ।
गणधरदेव गौतमस्वामी, भगवान महावीरके प्रमुख शिष्य ही नहीं, अपितु भगवान महावीरके ११ गणधरोंमें मुख्य गणधर थे। आपका नाम इन्द्रभूति था । आपके दो भाई अग्निभूति व वायुभूति भी भगवान महावीरके गणधर थे । आप १२ अंग ( - समस्त श्रुतज्ञान ) के ज्ञाता थे अर्थात् सम्यग्दर्शनपूर्वक मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञानके धारी थे । बुद्धिलब्धि, औषधि-लब्धि आदि अनेक लब्धियाँ प्रगटी होने पर भी वे जानते थे, कि इन सब लब्धियोंसे आत्मानुभवरूप लब्धि कोई अचिंत्य महात्म्यवाली है और केवलज्ञानरूप लब्धिके सामने ये लब्धियाँ कुछ भी नहीं है ।
प्रसिद्ध कथानुसार आपका जीव पूर्वभवोंमें भरतक्षेत्रमें आए काशी देशकी वाराणसी नगरीके राजा विश्वलोचनकी गुणशील, रूपवंत, पतिके प्रति अति स्नेह रखनेवाली नेत्र- विशाला नामक रानी था। किसी कारणवश उसका मन चंचलतासे भर आनेसे अपनी दो दासीयोंके साथ राजमहल आदिका त्याग कर काम-वांछासे लंपटतावश पर पुरुष रमणता करने हेतु गाँव-गाँव घूमने लगी तथा मांसाहार व मदिरापान तक करने लगी। ऐसे स्वेच्छाचारपूर्वक भ्रमण करती ये तीनों अवंती देशमें (उज्जैनी नगरी) पहुँची । वहाँ अचल - ध्यानी- मौनी, शान्त, तप-संयमके धारी सम्यक्त्वरत्नत्रयधारी महातपस्वी मुनि भगवंतको आहार पर जाते देख,
भगवान महावीरके ११ गणधर :- १. इन्द्रभूति, २. अग्निभूति, ३ . वायुभूति ४ शुचिदत्त, ५. सुधर्म, ६. मांडव्य ७. मौर्यपुत्र, ८. अकंपन, ९. अचल, १०. मेवार्य, ११. प्रभास ।
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