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मुदित करती है। परमपारिणामिकभाव, सहज सुखमय मुनिदशा और सिद्ध जीवोंकी परमानंदपरिणतिके प्रति भक्तिसे मुनिवरका चित्त मानों, कि उल्लसित हो रहा है और उस उल्लासको व्यक्त करनेके लिए उनके पास शब्द अतिशय कम पड़ते हों, ऐसा उनके मुखसे प्रसंगोचित अनेक उपमा अलंकार द्वारा व्यक्त होता है। अन्य अनेक उपमाओंके साथ, मुक्ति, दीक्षा आदिको बारबार स्त्रीकी उपमा बे-धड़क दी है, जिससे आत्ममस्त महामुनिवरके ब्रह्मचर्यका अतिशय जोर सूचित होता है। संसार दावानल समान है, और सिद्धदशा तथा मुनिदशा परम सहजानंदमय है—ऐसे भावके प्रवाहका पूरी टीकामें ब्रह्मनिष्ठ मुनिवरने अलौकिक रीतिसे सतत सर्जन किया है और स्पष्टरूपसे दर्शाया है, कि मुनियोंके व्रत, नियम, तप, ब्रह्मचर्य, त्याग, परिषहजय, आदिरूप कोई भी परिणति हठसे, खेदयुक्त, कष्टजनक या नरकादिके भयमूलक नहीं होती, परंतु अन्तरंग आत्मिक वेदनसे होती परम परितृप्तिके कारणसे सहजानंदमय होती है कि जिस सहजानंदके पास संसारीओके कनककामिनीजनित कल्पित सुख उपहासमात्र और घोर दुःखमय भासते हैं। यथार्थतया मूर्तिमंत मुनिपरिणति समान यह टीका, मोक्षमार्गमें विहार करते मुनिवरोंकी सहजानंदमय परिणतिका तादृश चितार देती है। इस कालमें ऐसी यथार्थ आनंदनिर्भर मोक्षमार्गकी प्रकाशक टीका मुमुक्षुओंको समर्पित करके टीकाकार मुनिवरने महान उपकार किया है।
आपने नियमसार ग्रंथ टीका व पार्श्वनाथस्तोत्र दो ही रचना रची है। आपका समय ई.सा.की १२वीं शताब्दीका मध्यपाद माननेमें आता है।
'नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति टीका'के रचयिता मुनिवर पद्मप्रभमलधारिदेव भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
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