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जब पिता-पुत्रके प्रश्नोत्तरका संवाद त्रिशला रानीके कानोंमें पड़ा, तब वह पुत्रमोहसे व्याकुल हो उठी। उसके पाँवके नीचेकी जमीन खिसकने लगी। आँखोंके सामने अंधेरा छा गया। वह मूर्छित ही हो रही थी, कि बुद्धिमान वर्द्धमानकुमारने चतुराई भरे मधुर शब्दोंमें उसे धैर्य बंधाया। उनके सामने उसने अपने समस्त कर्तव्य प्रकट कर दिये-अपने उच्च आदर्श विचार सामने रख दिये एवं संसारके दूषित वातावरणसे उन्हें परिचित करा दिया। तब रानी त्रिशलाने अश्रु-सिक्त आँखोंसे भगवान महावीरकी ओर देखा। उस समय उसके चेहरे पर उन्हें आत्मकल्याणकी दिव्य झलक दिखाई दी। उसकी लालसा रहित सरल मुखाकृतिने समस्त विमोहको दूर कर दिया। महावीरको देखकर उसने अपनेको धन्य माना
और कुछ देर तक अनिमेष दृष्टिसे उसकी ओर देखती रही। फिर कुछ देर बाद उसने महावीरसे स्पष्ट स्वरमें कहा-'हे देव ! जाओ, हर्षसे जाओ। अपना आत्मकल्याण करो। अब मैं आपको पहचान सकी। अब लग रहा है, कि न मैं आपकी माता हूँ, आप तो एक आराध्य देव हैं और मैं हूँ आपकी एक क्षुद्र सेविका। मेरा पुत्र-मोह बिलकुल दूर हो गया
जातिस्मृतिज्ञान प्रकट हो जानेसे व माताके उक्त वचनोंसे महावीर स्वामीके विरक्त हृदयको और भी आलम्बन मिल गया। उन्होंने स्थिर-चित्त होकर संसारकी परिस्थितिका पूर्ण विचार किया और वनमें जाकर दीक्षा लेनेका दृढ़ निश्चय कर लिया।
उसी समय धवल वस्त्र पहने हुए लौकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुति की और उनके दीक्षा धारण करनेके विचारोंकी सराहना की। अपना कार्य पूरा कर लौकान्तिक देव अपने स्थानों पर वापस चले गये। उनके जाते ही असंख्य देव-गण नियोगरूप जय-घोष करते हुए आकाशमार्गसे कुण्डलपुर आये। वहाँ अगहन वदी दशमीके दिन हस्त नक्षत्रमें संध्याके समय कुमार वर्धमानने 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' कहकर वस्त्राभूषण उतार दिये। पंच मुष्टियोंसे अपने केश उखाड डाले। इस तरह बाह्य और अभ्यंतर परिग्रहोंका त्याग कर वे आत्मध्यानमें लीन हो गये। विशुद्धताके बढ़नेसे अप्रमत्तदशा सह उन्हें मनःपर्ययज्ञान प्राप्त हो गया। 'दीक्षाकल्याणक'का उत्सव समाप्त कर देव लोग अपने-अपने स्थानों पर चले गये।
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