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भगवान आचार्यदेव श्री वादिराजसूरि
'एकीभावस्तोत्र' अपरनाम 'कल्याण कल्पद्रुम' से आप जैन समाजमें जन-जन तक प्रसिद्ध हैं। आपके स्तोत्रका नाम 'कल्याण कल्पद्रुम' होने पर भी भक्तामर, स्वयंभू आदि स्तोत्रोंकी भाँति, स्तोत्रके ‘आदि शब्द' से इस स्तोत्रका नाम ‘एकीभाव स्तोत्र' जगतमें प्रचलित है। आचार्यश्री जाने-माने दार्शनिक, चिन्तक व महाकवियोंमें अपना एक स्थान रखते हैं।
आप उच्च कोटिके तार्किक थे। आपकी तुलना जैन कवियोंमें आचार्य सोमदेवसूरिसे व संस्कृतके कवि नैषधकार तथा श्रीहर्षके साथ की जाती है। आपके लिए एक उक्ति प्रवर्तती है, कि 'आपकी बुद्धिरूपी गायने जीवनपर्यन्त शुष्कतर्करूपी घास खाकर काव्य-दुग्धसे सहृदयजनोंको तृप्त किया है।
आप द्रविड संघमें नन्दिसंघके आचार्य थे। आप शक्तिशाली वक्ता, चिन्तक, षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति व जगतेकमल्लवादी आदि अनेक उपाधियोंसे भूषित थे। आपसे अन्य वैयाकरणी, तार्किक व भव्यसहायक हीन ही हीन हैं। आप भगवान आचार्य अकलंकदेवके तुल्य थे।
आपकी प्रशंसाके कई शिलालेख दक्षिणमें उपलब्ध हैं। उसमें एक स्थान पर लिखा है कि 'तीन लोकका दीपक-प्रकाशन दो से ही उदय प्राप्त हुआ है—एक जिनराजसे और एक वादिराजसे।'
आप आचार्य श्रीपालके प्रशिष्य, आचार्य मतिसागरके शिष्य, अनन्तवीर्य व यशपाल मुनिके गुरुभाई थे। आपका शुभ नाम कनकसेन था व दीक्षानाम वर्द्धमान मुनिश्वर था व 'वादिराज' उपाधिकृत नाम हो, ऐसा प्रतीत होता है। आपके पादकमलमें परवादिमल्लनामक जिनालयका निर्माण हुआ था। आप चालुक्य नरेश जयसिंह (द्वितीय) द्वारा सम्मानित थे। आप उनसे पूजित व उनके राज्यके वादि थे।
आपके बारेमें एक कथा प्रचलित है, कि आपको कुष्ठ रोग हो गया था। एक बार इस बारेमें राज्यसभामें चर्चा हुई। तब आपके अनन्य भक्त सेठने अपने गुरुके अपवादके
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