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साथ ही यह भी कहा, कि आप लोग उज्जयिनी नगरी छोड़कर चले जाइये, अन्यथा प्राणरक्षा नहीं हो सकेगी।
राजकुमार अपने पिता सिंहलके पास गये और राजा मुञ्जकी गुप्त मन्त्रणा प्रकट कर दी। सिंहलको मुञ्जकी नीचता पर बड़ा क्रोध आया और उसने पुत्रोंसे कहा, मुज द्वारा षड्यंत्र पूरा करनेसे पहले तुम उसे यमराजके यहाँ पहुँचा दो। कुमारोंने बहुत विचार किया और वे संसारसे विरक्त हो वनकी ओर चल पड़े।
महामति शुभचन्द्रने किसी वनमें जाकर मुनिराजके समक्ष दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली और तेरह प्रकारके चारित्रका पालन करते हुए घोर तपश्चरण करने लगे; पर भर्तृहरि एक कौल तपस्वीके निकट जाकर उसकी सेवामें संलग्न हो गया। उसने जटाएँ बढ़ा ली, कमंडलु, चिमटा लेकर, कन्दमूल भक्षण द्वारा उदरपोषण करने लगा। बारह वर्ष तक भर्तृहरिने अनेक विद्याओंकी साधना की। उसने योगों द्वारा शतविद्या और रसतुम्बी प्राप्त की। उस रसके संसर्गसे तांबा सुवर्ण हो जाता था। भर्तृहरिने स्वतंत्र स्थानमें रसतुम्बीके प्रभावसे अपना महत्त्व प्रकट किया।
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જયદે
भर्तृहरि द्वारा आचार्य शुभचन्द्रजीको ताम्र सोना हो जाय' ऐसा तुम्बीरस देते हुए
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