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बाद ही वे उनके समीप आये और उनके दर्शनमात्रसे ही उनका सन्देह दूर हो गया। इसलिए उन्होंने बड़ी भक्तिसे कहा था, कि यह बालक सन्मति तीर्थंकर होनेवाला है, अर्थात् उन्होंने उनका नाम 'सन्मति' रखा था।
वह बालक द्वितीयाके इन्दुकी भाँति दिन-प्रतिदिन बढ़कर कुमार-अवस्थामें प्रविष्ट हुआ। कुमार वर्द्धमानको जो भी देखता था, उसकी आँख हर्षके आँसुओंसे तर हो जाती थीं। मन आनन्दसे गद्गद् हो जाता था और शरीर रोमाञ्चित हो जाता था। इन्हें अल्पकालमें ही समस्त विद्यायें स्वतः प्राप्त हो गई थीं। बालक वर्द्धमानके अगाध पाण्डित्यको देखकर अच्छे-अच्छे विद्वानोंको भी दाँतों तले अंगुलियाँ दबानी पड़ती थीं। विद्वान होनेके साथ-साथ वे शूरता, वीरता और साहस आदि गुणोंके अनन्य आश्रय थे।
किसी एक दिन इन्द्रकी सभामें देवोंमें यह चर्चा चल रही थी, कि इस समय सबसे अधिक शूरवीर श्रीवर्धमानस्वामी ही हैं। यह सनकर एक संगम नामका देव उनकी परीक्षा करनेके लिए आया। आते ही उस देवने देखा कि देदीप्यमान आकारका धारक बालक वर्द्धमान, बाल्यावस्थासे प्रेरित हो, बालकों जैसा वेश धारण करनेवाले तथा समान अवस्थाके धारक अनेक देवोंके साथ बगीचेमें एक वृक्ष पर चढ़े हुए क्रीड़ा करनेमें तत्पर हैं। यह देख संगम नामका देव उन्हें डरानेकी इच्छासे किसी बड़े साँपका रूप धारण कर उस वृक्षकी जड़से लेकर
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