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अभी समझाया वैसा लेखनरूप हो तो....हमें लाभदायी हो । कृपा करके ऐसे सरल ग्रंथकी रचना करनेकी विनती स्वीकार कीजिये।
ऐसी आत्मार्थकी भावना देखकर प्रभुने जीवों पर कृपा बरसाकर गोम्मटसारादि ग्रंथ लिखे। जिसमें धवलाजी आदिको संक्षिप्तमें और सरलतासे समा दिये व गागरमें सागर भर दिया । ऐसा अपूर्व कार्य, भव्योंके भाग्यसे, विधिकी कोई अपूर्व पलमें प्रभुकृपासे प्राप्त हो गया।
आत्मार्थीयोंका महाभाग्य था, कि ऐसे महान ग्रन्थोंकी रचना ऐसे गुरु द्वारा हुई जो कि
जह चक्केण य चक्की छक्खंडं सहियं अविग्धेण।
तह मइचक्केण मया छक्खडं साहियं सम्मं॥ गो. क.कां. ३९७॥ जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्ररत्नसे भरतके छखंडोंको बिना किसी विघ्नके साधते हैं, वैसे ही मैंने (नेमिचन्द्रने) अपने क्षयोपशमरूपी चक्रसे षट्खण्डागमरूप सिद्धान्तग्रंथके षट् खंडोंको सम्यक्रीतिसे साधा है।
इस भांति आपने षट्खण्डागम कहो या धवलाजी कहो; सभीको सुव्यवस्थित अवगत व भावभासन करके गोम्मटसारादि ग्रंथोंमें संक्षिप्तसे भर दिया है, फिर भी धवलाजी जितने वे दुरुह नहीं हुए; यह आपके लेखनीकी उत्कृष्टता है।
आचार्य अभयनन्दिजी आपके दीक्षागुरु थे व आचार्य वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि आपके सहाध्यायी थे या ज्येष्ठ गुरुभाई होंगे-अतः आपने उन्हें अपने गुरुके रूपमें विनयपूर्वक स्मरण किया है। आपने आचार्य कनकनंदिजीसे ‘सत्त्वज्ञान' प्राप्त किया; आचार्यदेव कनकनन्दिजीकी
आप पर इतनी असीम कृपा थी, कि आपके गोम्मटसार ग्रंथके लिए स्वयंने 'सत्त्वस्थान भंग प्ररूपणा' अधिकार गा. ३५८ से ३९७ तुरंत लिख दी।
प्रसिद्धकथा अनुसार गंगनरेशके मंत्री व सेनापति चामुण्डरायकी जिनभक्त माता काललदेवीने पुराणका श्रवण करते समय भरत और बाहुबलीकी कथाके प्रसंगमें यह सुना, कि चक्रवर्ती भरतने अपने परम तपस्वी, लघु भ्राताकी पोदनपुरमें ५२५ धनुष ऊँची एक मूर्ति बनवाई थी, किन्तु कालके प्रभावसे अब उसके आसपास कुक्कुट सर्पोका वास हो गया है और परम शान्तिदायक इस मूर्तिके दर्शन अब दुर्लभ हो गए हैं। यह सुन काललदेवीने प्रतिज्ञा की, कि वे तब तक दूध ग्रहण नहीं करेंगी; जब तक वे इस मूर्तिका दर्शन न कर लें। मातृभक्त चामुण्डरायको अपनी पत्नी अजितादेवीसे यह बात मालूम हुई तो वे अपनी माता की इच्छाकी पूर्तिके लिए उद्यत हुए। सेनापति और मन्त्री तो वे थे ही,
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