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प्रथमानुयोग दर्शन आदि विषयों पर सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त था। आप जैन दर्शन व अन्य दर्शनोंके सिद्धान्तिक फ़रकको गहराईसे जानते थे। अन्य दर्शनोंमें वेद, उपनिषद, स्मृति, सांख्य, योग, वैषेशिक, न्याय, मीमांसक, बौद्ध, चार्वाक आदि सभी भारतीय दर्शनों पर आपको अच्छा अध्ययन प्राप्त था। इस भाँति स्वयं ज्ञान-ध्यानमें लवलीन रहते होने पर भी असाधारण क्षयोपशमके धनी थे—यह अति स्पष्ट है। आपने जो जिनधर्मको शास्त्र प्रदान किये हैं, उनसे प्रतीत होता है, कि आपका आयुष्य बड़ा होना चाहिए। आत्मज्ञान सह विशाल क्षयोपशम व वैराग्यके धनी हो जानेसे आपने छोटी उम्रमें ही भगवती जिनदीक्षा व आचार्य पदवी धारण की हो—ऐसा अनुमान है।
आप द्वारा रचित 'प्रमेयकमलमार्तंड' व 'न्याय कुमुदचंद्र' जैन न्यायशास्त्रके अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं। इन ग्रंथके विषयवस्तुको देखते हुए स्पष्ट होता है, कि क्रमशः “प्रमेयरूपी कमलोंको उद्भासित करनेके लिए आप मार्तण्ड-सूर्य' समान होनेसे 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नाम यथार्थ है; व “न्यायरूपी कुमुदोंको प्रस्फुरित करनेके लिए चन्द्रमा सदृश' होनेसे 'न्याय कुमुदचन्द्र' नाम भी यथार्थ हैं।
जो कुछ भी हो, आपके लिखित शास्त्रोंकी शैली, भाषा, शिलालेखोंसे विद्वान वर्गको निश्चय है, कि आप निम्न शास्त्रोंके रचयिता थे।
(१) प्रमेयकमलमार्तण्ड : परीक्षामुख-व्याख्या, (२) न्याय कुमुदचंद्र : लघीयस्त्रय व्याख्या, (३) तत्त्वार्थवृति पद विवरण : सर्वार्थसिद्धि व्याख्या, (४) शकटायनन्यास : शकटायन व्याकरण व्याख्या, (५) शब्दाम्भोजभास्कर : जैनेन्द्रव्याकरण व्याख्या, (६) प्रवचनसार सरोज भास्कर : प्रवचनसार व्याख्या, (७) गद्यकथाकोष : स्वतंत्र रचना, (८) रत्नकरंडक श्रावकाचार-टीका, (९) समाधितंत्र टीका, (१०) आत्मानुशासन टीका, (११) क्रियाकलाप टीका, (१२) महापुराण-टिप्पण, (१३) लघुद्रव्यसंग्रह वृत्ति, (१४) पंचास्तिकाय प्रदीप, (१५) समयसार टीका, (१६) चन्द्रोदय भी आपकी रचना प्रतीत होती है।
आचार्यदेव रचित रचनाओं तथा उत्तरवर्ती रचनाओके आधार पर काफी उहापोह पश्चात् इतिहासकार विद्वानवर्गने आपका समय ई.स. ९५० से १०२० माना है।
ऐसे आत्मज्ञान सह अनहद वैराग्य व ज्ञान-ध्यानमें प्रचुर आचार्य प्रभाचन्द्रदेव(चतुर्थ)को कोटि कोटि वंदना।
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