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भगवान महावीरस्वामी
भरतक्षेत्रकी वर्तमान चौबीसीके तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथके मोक्षगमनके पश्चात् मात्र एकसौ वर्षके भीतर ही जिनेन्द्रवाणीमेंसे प्रवाहित हुई ज्ञानगंगाका प्रवाह अति मंद हो गया। समग्र भारतवर्षमें विपरीत मतावलम्बीयोंका प्रभुत्व स्पष्टरूपसे स्थापित हो गया। अन्य मतके पाखंडीयोंने भरतक्षेत्रकी जनताके मानस पर अपना आधिपत्य जमा लिया था।
ऐसे दुःषम वातावरणमें भरतक्षेत्रके चौवीसवें तीर्थंकर भगवान महावीरस्वामीका जन्म । भरतक्षेत्रके भव्य जीवोंका भाग्य पुनः जागृत हुआ। जो भूमि सम्यक्त्वविहिन वीरान जैसी हो गई थी; वह पुनः भगवान महावीरके आगमनसे पल्लवीत हो गई।
जम्बूद्वीप-भरतक्षेत्रके मगध (बिहार) देशमें कुण्डलपुर नामक एक नगर था, जो उस समय वाणिज्य-व्यवसायके द्वारा उत्कर्षकी चरम सीमा पर था। उसमें बड़े-बड़े धनाढ्य सेठ लोग रहा करते थे। कुण्डलपुरका शासन-सूत्र महाराज सिद्धार्थके हाथमें था। सिद्धार्थ शूरवीर होनेके साथ-साथ बहुत गम्भीर प्रकृतिके पुरुष थे। लोग उनकी दयालुता देखकर कहते, के ये चलते-फिरते दयाके सागर हैं। उनकी मुख्य रानीका नाम प्रियकारिणी (त्रिशला)
।
अच्युत स्वर्गके इन्द्रकी आयु छः माह बाकी रह गई, तबसे महाराज सिद्धार्थके र प्रतिदिन रत्नोंकी वर्षा होने लगी। अनेक देवियाँ आकर (त्रिशला) प्रियकारिणीकी सेवा
करने लगी। इन सब कारणोंसे महाराजा सिद्धार्थको निश्चय हो गया, कि अब हमारे नाथ-वंशमें किसी प्रभावशाली जगवन्य महापुरुषका जन्म होनेवाला है।
अषाढ़ शुक्ला षष्ठीके दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्रमें रात्रिके पिछले प्रहरमें रानी त्रिशलाने सोलह स्वप्न देखे और
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