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उत्कृष्ट ज्ञानी व महातपस्वी तो थे, पर साथ हीमें आप अखण्ड बाल-ब्रह्मचारी भी थे। आपका निवासस्थान दक्षिणके आरकट जिलेका 'तिरुमरुड़कुण्डम्' नगर माना जाता है। आपके ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे ज्ञात होता है, कि आप सेनसंघके आचार्य थे।
__ भगवान आचार्य जिनसेन (द्वितीय)की भांति आपकी अपनी साधनाभूमि कर्णाटक व महाराष्ट्रकी भूमि ही रही है, क्योंकि इन्हीं स्थानोंमें आपने अपने ग्रंथोंकी रचना की है।
इतना ही नहीं, आप अपने गुरुके ऐसे शिष्य थे, कि जिन्होंने अपने गुरुकी भांति, अपने गुरुके अधूरे कार्यको पूर्ण किया। आप अपने गुरुके अतिशय प्रिय भक्त थे। आपकी गुरुभक्तिका एक ही उदाहरण पर्याप्त है, वह यह कि आपने अपने गुरुके महापुराण अर्थात् आदिपुराणके ४२ सर्गके पश्चात्का कार्य यानि कि २३ तीर्थंकर सह ६३ शलाका पुरुषका जीवनचरित्ररूप उत्तरपुराण रचा है। वह बनाते समय लिखते हैं कि, 'इस रचनामें मेरे वचन श्रोताओंको सुस्वादु (आनन्ददायक) प्रतीत हों, तो वह मेरे गुरुओंका ही प्रभाव समझना चाहिए, क्योंकि आम्र आदि फलोंमें जो सुस्वादुता देखी जाती है, वह उन फलोंके उत्पादक उनके वृक्षके कारण ही है। इतना ही नहीं, 'मेरे ये वचन जिस हृदयसे निकलनेवाले हैं, उस हृदयमें तो गुरुओंका वास निरन्तर है, अतः वे उनके संस्कारसे संयुक्त-रस, भाव व अलंकारादिसे विभूषित होंगे ही।' वे गुरु भक्त इतने हैं, कि वे लिखते हैं, 'जगतमें श्रेष्ठ गुरु सर्वत्र दुर्लभ है व इस पुराणरूप समुद्रको पार करनेमें मेरे आगे चल रहे हैं।
आपकी रचनाओंसे गुरुभक्तिसह उत्कृष्ट विद्धता व आपकी शालीनताका ही परिचय मिलता है, कि जिससे ज्ञात होता है, कि ऐसे उत्कृष्ट महाकाव्यकी रचना बनना आपकी असाधारण प्रतिभा व उत्कृष्ट विद्वता बिना असंभव ही था।
आपने निम्न ग्रंथोंकी रचना की है।
(१) आदिपुराण ४३वे पर्वके चौथे पद्यसे ४७ सर्ग तक पूर्णतया, (२) उत्तरपुराण : भगवान जिनसेनाचार्य (द्वितीय)की महापुराण रचनाका आदिभाग 'आदिपुराण'के नामसे प्रसिद्ध हुआ, अतः यह उत्तरभाग 'उत्तर पुराण'के नामसे प्रसिद्ध हुआ है। (३) आत्मानुशासन, (४) जिनदत्त चरित काव्य ।
आपका समय विद्वानोंने ई.स. ८९८ निर्णित किया है।
परम वैराग्यवंत ‘आत्मानुशासन' के रचयिता आचार्य गुणभद्रस्वामीको कोटि कोटि वंदन।
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