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भगवान आचार्य श्री विद्यानन्दस्वामी
जिनशासनके बालब्रह्मचारी समर्थ आचार्य भगवंतोंमें आपकी गणना है। इतना ही नहीं, आपने एक महान सारस्वताचार्यकी भांति मौलिक व टीकाग्रन्थों द्वारा जिनेन्द्र भगवानकी वाङ्गमय जिनवाणीको अति सुदृढ किया है। आपकी अपनी मौलिक प्रतिभा आपके न्याय व दर्शनशास्त्रोंमें स्पष्ट झलकती है ।
आप मगधराज अवनिपालकी सभाके एक प्रसिद्ध विद्वान थे। आपका पूर्व नाम यद्यपि पात्रकेसरी होने पर भी, आप आचार्य पात्रकेसरीसे भिन्न ही हैं व काफी शताब्दी पश्चात्के आचार्य हैं। आप कर्णाटक प्रान्तके निवासी थे। आपका जन्म प्रखर ब्राह्मण परिवारमें हुआ था ।
एक दन्तकथा ऐसी भी है, कि वे मूलतः वैदिक मतानुयायी थे। अतः जिनमन्दिर नहीं जाते थे। किन्तु एक बार ऐसी घटना घटी, कि वे जब जिनमन्दिरके निकटसे जा रहे थे, उस समय मन्दिरमेंसे देवागमस्तोत्र ( आप्तमीमांसा ) के शब्द उनके कर्णपट पर पड़े । पूर्व संस्कारसे या स्वयं स्फूरणासे उस स्तोत्रके भाव सहज ही समझमें आने लगे। अतः उनके पाँव मन्दिरकी ओर बढ़ने लगे। ज्यों-ज्यों मन्दिरकी ओर बढ़ते गये त्यों-त्यों उन स्तोत्रके शब्दोंके भाव स्पष्ट होते गये। इस स्तोत्रके भाव ग्रहणसे वे भावरूप विद्या + आनन्द = विद्यानन्द बन गये अर्थात् जिनभक्त बन गये। ऐसा आप स्वयम्ने भी लिखा है ।
कई लोगोंका ऐसा मानना है, कि आपको उस समयमें भिन्न-भिन्न मतोंके विद्वानों द्वारा होते शास्त्रार्थोंको देखने व भाग लेनेका शौक था। उसमेंसे जैनके अनेकान्त व स्याद्वाद दर्शनकी गहनता, गंभीरता, सचोटता, न्यायपूर्ण व अकाट्य प्रतीत होनेसे आपको जैनधर्ममें विशेष दृढ़ श्रद्धा हो गई।
जन्मसे वैदिकधर्मी होनेसे आपके समय के प्रसिद्ध वैदिकधर्म जैसे, कि न्याय ( नैयायिक), मीमांसक, वेदान्त, सांख्य, योग, प्रभाकर आदि वैदिक दर्शनका आपको भरपूर अभ्यास होनेसे, आप वैदिक धर्ममें पांडित्य व प्रसिद्ध विद्वान थे। आपको बौद्ध दर्शनका भी काफी अभ्यास था। जैनमतानुयायी होने पर आपको देवागम स्तोत्र ( आप्तमीमांसा),
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