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फिर भी विद्वानोंके एक शोधपूर्ण लेखके आधारसे यह जाना जाता है, कि 'किसी समय निजाम स्टेटका 'कोपल' ग्राम, जिसे 'कोपण' भी कहते हैं, जैन संस्कृतिका एक प्रसिद्ध केन्द्र था । मध्यकालिन भारतके जैनोंमें इसकी अच्छी ख्याति थी और आज भी यह स्थान पुरातन-प्रेमियोंके स्नेहका भाजन बना हुआ है। इसके निकट 'पल्लकीगुण्डु' नामकी पहाड़ीपर अशोकका एक अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसके निकट दो पद चिह्न अंकित हैं। उनके ठीक नीचे पुरानी कन्नड़ में दो पंक्तिका एक अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसमें लिखा है, कि 'यावय्यने जटासिंहनन्द्याचार्यके पदचिह्नोंको तैयार कराया' ।
यह भी जाना जाता है, कि आप एक महाकवि थे तथा कन्नड साहित्य में आपके संबंध में आई भूरि-भूरि प्रशंसासे यह सूचित होता है, कि आपका अधिकांश विहार कर्णाटक प्रदेशमें हुआ था व 'कोपल' में आपने अन्तिम जीवन व्यतीत किया था ।
आचार्यदेव जिनसेन (द्वितीय) ने आपके लिए लिखा है, उस परसे प्रतीत होता है, कि आपकी लहराती हुई कीर्तिरूप जटाएँ लम्बी-लम्बी थी । यह मात्र आपकी ख्यातिरूपी जटाओंके बारेमें ही उल्लेख हो, ऐसा प्रतीत होता है। उसी भांति आप अपने शरीरके प्रति इतने अधिक निस्पृह होंगे व गहन जंगलोंमें ही विशेष विचरण करते होनेसे आपको 'आदिवासी' के रूपमें ही लोग स्मरण करते रहे होंगे। इतिहासकारोंकी ऐसी कल्पनामात्र ही प्रतीत होती है।
आपकी जानी पहचानी मात्र एक ही कृति ' वरांङ्गचरित्र' होनेका उल्लेख मिलता है, फिर भी अन्य शास्त्रोंमें आपके नामसे दिये जाते श्लोक ' वराङ्गचरित्र' में उपलब्ध नहीं होनेसे विद्वानोंका मानना है, कि आपकी ' वराङ्गचरित्र' के अलावा अन्य कृति भी होनी चाहिए । आपका काल ई.की ७वीं शताब्दीका उत्तरार्ध व ८वीं शताब्दीका पूर्वार्धके आसपास ही होना निश्चित होता है ।
आचार्यदेव जटासिंहनन्दि भगवंतको कोटि कोटि वंदन ।
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