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पूज्यपादजीने विवाह न करके बचपनमें ही जैनधर्म स्वीकार कर लिया था। पश्चात् आपने एक बगीचेमें एक साँपके मुँहमें फँसे हुए मेंढकको देखा। इससे आपको वैराग्य हो गया और वे जैन साधु बन गये। पाणिनी अपना व्याकरण
रच रहे थे। वह पूरा न पज्यपादजी सर्पके मुँहमें मेंढक देख वैराग्यकी वृद्धिसे मुनिदीक्षा लेने उद्धत । हो पाया था। उन्होंने अपना मरणकाल निकट आया जानकर पूज्यपादसे कहा, कि इसे तुम पूरा कर दो। उन्होंने पूरा करना स्वीकार कर लिया। पाणिनी दुर्भाग्यवश मरकर सर्प हुए। एकबार उसने पूज्यपादको देखकर फूत्कार किया। इस पर पूज्यपादने कहा—'विश्वास रखो, मैं तुम्हारे व्याकरणको पूरा कर दूंगा'। इसके बाद उन्होंने 'पाणिनि व्याकरण'को पूरा कर दिया।
पूज्यपादस्वामी अनेकबार विदेहक्षेत्र गये थे व आपने अनेक तीर्थोंकी यात्रा भी की थी।
आपके शिष्य वज्रनन्दि थे। मार्गमें एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गई थी, सो उन्होंने एक शान्त्यष्टक बनाकर ज्योंकी त्यों दृष्टि प्राप्त कर ली। (इस बातकी सत्यतामें विविधमत हैं)। एक बात स्पष्ट है, कि आचार्य पूज्यपाद 'पाणिनी व्याकरण', उसके वार्तिक
और महाभाष्यके मर्मज्ञ थे। पूज्यपाद मुनि बहुत समय तक आत्मध्यानरूप योगमय सारपदका अभ्यास करते रहे। इसके बाद उन्होंने अपने ग्राममें आकर समाधिपूर्वक मरण किया।
पूज्यपाद आचार्य द्वारा लिखित अब तक निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं- १. दशभक्ति, २. जन्माभिषेक, ३. तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि), ४. समाधितन्त्र, ५. इष्टोपदेश, ६. जैनेन्द्रव्याकरण, ७. सिद्धिप्रिय-स्तोत्र ।
आचार्य देवनन्दि-पूज्यपादका समय ईसुकी पाँचवी शताब्दीका मध्यपाद सिद्ध होता है, जो सर्वमान्य है। महान् आचार्यदेव श्री पूज्यपादस्वामी भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
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