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आपके इस ग्रन्थसे प्रतिफलित होता है, कि आपने चारों अनुयोगको अपने हृदयमें आत्मसात कर लिया था। इसलिए आपने अपने ग्रन्थमें संक्षिप्तसे द्रव्यानुयोग, करणानुयोग व चरणानुयोगका सार भर दिया है, कि जिससे उक्त तीन अनुयोगके दृष्टांतरूप प्रथमानुयोग भव्यजीवोंको सहज ही यथार्थरूपसे तात्त्विक दृष्टिकोणपूर्वक समझमें आ सके।
यह ग्रन्थ जैन साहित्यका संस्कृतमें लिखा सर्वप्रथम ग्रंथ है। यह 'सूत्रमें' होनेसे कंठस्थ हो सके ऐसा ग्रन्थ है। ये सूत्र दार्शनिक तत्त्वोंकी गंभीरतासे इतने भरपूर हैं, कि इस ग्रन्थ पर महान-महान आचार्यवरोंने गंभीर व दार्शनिक तत्त्वोंसे सभर टीकाएँ रची हैं, व कहीं-कहीं गंभीर दार्शनिक तथ्योंको बहुत ही खूबीसे खोला गया है। यह ही इस ग्रन्थकी अपनेमें बड़ी उपलब्धि है।
आपकी विद्वत्ता तो तत्त्वार्थसूत्रसे ही स्पष्ट है, कि जिसमें आपने अपने गुरु भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवके पंचपरमागम आदिमें द्योतित भावोंको अत्यंत विद्वत्-निपुणतासे आत्मसात् कर लिया है, ऐसा 'तत्त्वार्थसूत्र'के वाचकको ज्ञात हुए बिना नहीं रहता। इससे ही प्राचीनकालमें कई लोग 'तत्त्वार्थसूत्र'को भगवान कुंदकुंदाचार्यकी रचना मानने लगे थे।
आपकी निरूपणशैली अत्यंत गंभीर थी। इस बारेमें कहा जाता है, कि आपने तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाका मंगलाचरण जो कि “मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेतारं कर्मभूभृताम्, ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये।" है; उसकी टीका आचार्य समन्तभद्रजीने ११४ संस्कृत श्लोकोंमें रची, जिसका प्रथम शब्द 'देवागम' होनेसे वह 'देवागम स्तोत्र' के नामसे प्रसिद्ध है व उसमें 'आप्त'की मीमांसा (गहरी विचारणा) होनेसे 'आप्तमीमांसा'के नामसे भी प्रसिद्ध है। उसकी भगवान अकलंक आचार्यने ८०० श्लोक प्रमाण व उस पर भगवान विद्यानंदी आचार्यने ८००० श्लोकप्रमाण टीका रची, जिसका नाम क्रमशः ‘अष्टशती'व 'अष्टसहनी' है। इस परसे यह स्पष्ट होता है, कि 'तत्त्वार्थसूत्र'का मंगलाचरण ही इतना गंभीर था, कि जिसके भावोंको खोलनेके लिए ८००० श्लोकप्रमाण तककी टीका विद्यानंदी आचार्यको करनी पड़ी।
उक्त आचार्योंकी बनाई टीकाओंके अलावा भी जैन साहित्यमें इस ग्रंथकी अनेकानेक टीकाएँ उपलब्ध हैं। इस ग्रन्थमें दी गई तात्त्विक चितंवना इतनी महान है, कि जैन संप्रदायके दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायमें, पूज्यता व प्रमाणताकी दृष्टिकोणसे इस ग्रंथका समान महत्त्व है। आपके सूत्रोंका पश्चात्वर्ती आचार्योंने अपने शास्त्रोंमें भरपूर उपयोग किया है, इस परसे भी इस ग्रंथकी महानता व आचार्यदेवकी महानता हृदयमें उतरे बिना नहीं रहती। इतिहासकारोंका मानना है, कि आप ई.स. १७९-२४३के आचार्यवर थे। तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता आचार्यदेव उमास्वामी भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
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