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श्रावक दृष्टांत
की श्रद्धा में मिल जाए। पाप बतलाए तो श्रद्धा समाप्त हो जाए। तब क्रोध में आकर नगरसेठ हूं। लोगों को डराता हूं पर मैं
अकबक बोलने लगा - तुम समझते हो मैं नहीं डरता - इस प्रकार बोलने लगा ।
१६. साधर्मिक वात्सल्य का निषेध क्यों करते हो ?
भगवानदासजी ने फिर रतनजी से पूछा - श्रावक को पोषण देने से क्या होता है ? रतनजी बोले - बेला ( दो दिन की तपस्या) के पारणे वाले श्रावक का पोषण करने से धर्म होता है ।
तब भगवानदासजी बोले - बेले के पारणे वाले साधु तथा बिना पारणा वाले साधु को देने से क्या होता है ? रतनजी बोले- धर्म होता है। तब भगवानदासजी बोले- फिर पारणे वाले तथा पारणे बिना ही श्रावक का पोषण करने को धर्म क्यों नहीं कहते हो ? और इस प्रकार सब श्रावकों के पोषण को धर्म कहते हो तो हमारे 'साधर्मिक वात्सल्य' का निषेध क्यों करते हो ? इस प्रसंग में भी सही उत्तर नहीं आया ।
२०. वह वैद्य बुद्धिहीन
पीपाड़ में दौलजी लूणावत से चर्चा करते बोला- सन्निपात में आए रोगी को दूध मिश्री है ।
समय रतनजी क्रोध में आकर पिलाए तो सन्निपात अधिक बढ़ता
तब दौलजी बोला वह वैद्य (हीयाफूट) बुद्धिहीन है । उसका चन्द्रबल इधरउधर हो गया । (बुद्धि बल घट गया) जो सन्निपात का रोग जानता है, फिर भी दूध मिश्री पिलाता है ।
२१. ये कौन-सी लेश्या का लक्षण है ?
'ऋणहि' गांव वाले जीवोजी को गुमानजी के शिष्य किशनदासजी ने कहासाधु में ३ भली लेश्या ही है, माठी ( खराब) लेश्या नहीं है ।
इतने में जोरजी कटारिया आया । तब किशनदासजी हल्की भाषा में बोला'ओ आयो जीवला रो भरमायौ' (यह आया जीवोजी का भ्रमित किया हुआ) तब जीवोजी बोला तुम यों बोलते हो ये कौनसी लेश्या का लक्षण है ? तब किशनदासजी चुप हो गया ।
२२. डोरी रखने में भी दोष ?
संवत् १८७९ के पीपाड़ चतुर्मास में हेमजी स्वामी ने पाडिहारिक छुरी रात में रखी। भीखणजी स्वामी, भारमलजी स्वामी के समय में रखने की विधि थी । गृहस्थ को वापस दी जाने वाली पाडिहारिक वस्तु रखते थे, उसी हिसाब से रखी ।
तब वेषधारी ने खूब कदाग्रह किया। न होने वाले दोष बताने लगा । ऋणहि ग्राम वाले जीवोजी से कहा - गृहस्थ को वापस दी जाने वाली छुरी रात के समय पास में नहीं रखनी चाहिए ।
तब जीवोजी बोले- इसमें क्या दोष है ?