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दृष्टांत : ९-१३
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बचाते हैं, तो सामने यह हरा घास ऊगा है, गाय आकर इसे खाने लगी, तुम देख रहे हो तो इसको छुड़ाओगे या नहीं ? तब उत्तर अटक गया। मुस्कुराकर बोले'तुम्हारी श्रद्धा तुम्हारे पास, हमारी श्रद्धा हमारे पास' यह कहकर चलते बने।
१०. किसके सम्प्रदाय की? जोधपुर में कुछ इतर सम्प्रदाय की साध्वियों को मुनि हेम ने पूछा-तुम किसकी सम्प्रदाय की हो? तब वे तमक कर बोली- तुम्हारे गुरु का शिर मूंडा, उनके संप्रदाय की।
तब हेमजी स्वामी ने कहा--मेरे गुरु का मस्तक तो सबसे पहले नाई ने मूंडा था तो क्या तुम नाई के टोले की हो ? तब खीसियानी-सी होकर वहां से चली गई।
११. तुम तो जीवित बैठे हो ? सं० १८७८ के वर्ष नाथद्वारा में रुघनाथजी के साधु बोले-तुम स्थानक बनाने को दोष बतलाते हो, तो भारमलजी स्वर्गस्थ हुए, तब बैंकुठी बनाई । ग्यारह सौ रुपये लगाए, यह तुम्हें कितना पाप लगा? तब मुनि हेमजी ने कहा ---- उनको तो दिवंगत होने के बाद बैंकुठी में बिठाया, उस कारण साधुओं को पाप नहीं लगा। उसी तरह तुम्हें भी दिवंगत होने के बाद स्थानक में बिठाए तो तुम्हें भी पाप न लगे पर तुम तो जीवित स्थानक में बैठे हो अतः तुम्हें पाप लगता है । यह सुनकर हड़ हड़'हंसने लगे।
१२. हिंसा में धर्म कहां? वीलावास में एक देहरावासी (मूर्तिपूजक) बोला हिंसा के बिना धर्म होता ही नहीं, अगर होता हो तो बतलाओ ?
तव हेमजी स्वामी बोले - तुम यहां बैठे हो और वैराग्य से यावज्जीवन तक हरियाली खाने का त्याग कर दिया, यह धर्म हुआ कि नहीं ?
तब वह बोला -यह तो धर्म हुआ।
तब हेमजी स्वामी बोले यहां क्या हिंसा हुई ? तथा तुमने यहां बैठे ही वैराग्य से शीलव्रत स्वीकृत किया तो यह धर्म हुआ, यहां क्या हिंसा हुई ? इस प्रकार हिंसा के बिना तो धर्म होता है पर हिंसा में धर्म होने की बात तो कहीं रही, हिंसा से तो धर्म समाप्त होता है । कहीं पर साधु आये, उन्हें देखकर गृहस्थ बहुत प्रसन्न हुआ। आहार आदि देने के लिए उठा। हर्ष से आते समय एक सचित्त दाने पर पैर लग गया तो साधु उससे नहीं वहरते । इतनी-सी हिंसा से ही धर्म नहीं रहा।
१३. इतना अंतर क्यों? पाली में संवेगी सम्प्रदाय के श्रावक बोले--भावी तीर्थंकर को वन्दना करनी चाहिए।
तब हेमजी स्वामी बोले-तुम प्रतिमा बनाने के लिए पाषाण लाए, उस पाषाण की प्रतिमा होने वाली है, उस पाषाण को वन्दना करते हो या नहीं ? इसका उत्तर नहीं दे सके।