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दृष्टांत २२५-२२७
नहीं है ।
" इसी प्रकार शुद्ध मान्यता और आचार वाला वैरागी साधु, जो स्वयं वैराग्य में लीन है, दूसरों पर वैराग्य का रंग चढा देता है । '
२२५. मान्यता एक, स्पर्शना भिन्न-भिन्न
कुछ लोग कहते हैं- " साधु का धर्म भिन्न है और गृहस्थ का धर्म भिन्न है ।" तब स्वामीजी बोले – “चौथे गुणस्थान की और तेरहवें गुणस्थान की तत्त्व विषयक मान्यता तो एक है, किन्तु उनकी स्पर्शना भिन्न-भिन्न है— चौथे का स्पर्श सम्यग्दृष्टि करता है और तेरहवें का स्पर्श केवली करता है। सचित्त जल में असंख्य जलीय जीव होते हैं और फफूंदी में अनन्त जीव होते हैं, इसकी मान्यता एवं प्ररूपणा चौथे, पांचवे, छट्ठे और तेरहवें गुणस्थान वाले सभी करते हैं । किन्तु स्पर्शना में अन्तर है— चौथे और पांचवे गुणस्थान वाले जल के जीवों की हिंसा करते हैं, और साधु के उन जीवों की हिंसा करने का त्याग होता है । यह स्पर्शना चौथे और पांचवे गुणस्थान से भिन्न है ।
और प्ररूपणा चौथे, पांचवें, छठे और मान्यता तो एक है । किन्तु चौथे और त्याग होता है; इस दृष्टि से उनकी
से
"हिंसा में पाप होता है— उसकी मान्यता तेरहवें गुणस्थान वाले सभी करते हैं, इस दृष्टि पांचवें वाले हिंसा करते हैं और साधु के हिंसा का स्पर्शना भिन्न-भिन्न हैं, पर मान्यता भिन्न नहीं ।"
चौथे और तेरहवें गुणस्थान वालों की मान्यता एक है। वालों की मान्यता तेहरवें गुणस्थान की मान्यता से भिन्न हो गुणस्थान में चला जाए - मिध्यादृष्टि हो जाए ।"
२२६. वचन नहीं, वक्ता प्यारा होता है
रोयट में स्वामीजी ने शालिभद्र का व्याख्यान दिया; सो भाई उसे सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। वे बोले - स्वामीनाथ ! पहले भी शालीभद्र का व्याख्यान बहुत बार सुना है, पर इस बार जैसा सुना वैसा कभी नहीं सुना ।'
तब स्वामीजी बोले - " व्याख्यान तो वही है, पर कहने वाले के मुंह का अन्तर
है ।"
यदि चौथे गुणस्थान जाए, तो वह पहले
२२७. जगह तो परिग्रह है
किसी ने स्वामीजी से पूछा - " पौषध करने वाले को स्थान दिया, उसको क्या
हुआ ?
तब स्वामीजी बोले - " उसने कहा- 'मेरी जगह में पोषध करो, यह कहने वाले को धर्म होता है ।".
तब फिर पूछा - " जगह दी, उसमें क्या हुआ ?"
तब स्वामीजी बोले - " क्या उसने जगह सदा के लिए दे दी ? उसने अपनी
जगह में पौषध करने की स्वीकृति दी, वह धर्म है । जगह तो परिग्रह है, उसके सेवन करने और कराने से धर्म नहीं होता । सामायिक और पोषध की स्वीकृति देता है, वह धर्म है ।"