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दृष्टांत : ८०-८२
१५१ ८०. पंचों को पूछूगा एक वैद्य ने किसो आदमी की आंखो की शल्य-चिकित्सा की । मांख के ठीक होने पर वैद्य ने पुरस्कार मांगा। ___ तब वह बोला - "पंचों को पूछंगा । यदि पंच कहेंगे, 'तुझे दीखने लग गया, तब मैं तुम्हें पुरस्कार दूंगा।"
तब वैद्य बोला- "तुम्हें कैसा दिखाई देता है ?"
तब वह फिर बोला-"पंच कहेंगे कि 'तुझे ठीक दिखाई दे रहा है, तब तुम्हें पुरस्कार दूंगा।"
वैद्य ने सोचा-"पुरस्कार मिल चका!"
इसी प्रकार किसी को सिद्धांत समझाकर कहा जाता है, 'अब तुम गुरु स्वीकार करो,' तब वह कहता है, 'दो-चार व्यक्तियों को पूणूंगा और पहले जो गुरु हैं, उन्हें भी पूडूंगा । वे कहेंगे तो गुरु-धारणा कर लूंगा।' तब जान लेना चाहिए इसने सिद्धांत को ठीक से नहीं समझा।
८१. बड़ा मूर्ख किसी व्यक्ति ने वेषधारी साधुओं को छोड़ सच्चा सिद्धांत स्वीकार कर लिया और स्वामीजी का अनुगामी बन गया, परन्तु वेषधारी साधुओं से संग-परिचय नहीं छोड़ पा रहा था। वह बार-बार उनके पास जाता।
तब स्वामीजी ने पूछा- “उनका संग-परिचय क्यों रखता है ?" तब वह बोला--"मेरे मन में उनके प्रति पहले का स्नेह-भाव है।
तब स्वामीजी वोले -"किसी व्यक्ति को 'मेर' पकड़ कर ले गये और उसका घर-बार लूट लिया, उसकी पिटाइ भी की । बाद में घर वाले परिश्रम कर उसे छुड़ा लाए । कुछ समय बाद मेले में इकट्ठे हुए । वह 'मेरों को पहिचान उनसे मिला । तब लोगों ने पूछा- "इनके साथ तुम्हारी क्या जान-पहिचान है ?' तब वह बोला-मेरे शरीर पर भाई साहब के हाथ की चोट लगी है, यही भाई साहब से मेरी जानपहिचान है।"
तब लोगों ने जान लिया, 'यह पूरा मूर्ख है।'
इसी प्रकार इन कुगुरुओं के योग से कोई मिथ्या मार्ग की ओर जा रहा था। तब सद्गुरु उसे अच्छे मार्ग पर ले गए और यदि वह उन कुगुरुओं से संग-परिचय रखता है, तब वह बड़ा मूर्ख है।
८२. कहीं नया झगड़ा खड़ा न हो स्वामीजी ने सिरियारी में चतुर्मास किया। वहां पोतियाबंध मत का कपूरजी नाम का साधु था और उस मत की कुछ श्राविकाएं भी थीं । संवत्सरी-पर्व आया, तब , कपूरजी ने स्वामीजी से कहा- "भीखणजी ! श्राविकाओं से खटपट हो गई, अतः उनसे क्षमायाचना करने जा रहा हूं।"
स्वामीजी बोले-"तुम क्षमायाचना करने जा रहे हो, पर कहीं नया झगड़ा खड़ा न कर दो।"