________________
• पन्द्रह मेरा बुखार दूर करो तो स्वयं क्रूरता की शिकार बनी वह सती क्या बुखार दूर करेगी? वैसे ही यदि रोटी का भूखा कोई साधु वेष पहरे और उससे कोई कहे कि तुम श्रामण्य' का अच्छी तरह पालन करना तो वह क्या खाक पालन करेगा?' (३०२)
अनेक दृष्टांतों में बड़ा सुन्दर तत्त्व-निरूपण मिलता है। उदाहरण स्वरूप थोड़े से दृष्टांतों की हम यहां चर्चा करेंगे ।
पुस्तक और ज्ञान में क्या अन्तर है, इसकी भेद-रेखा एक दृष्टांत में बड़ी ही सुंदर रूप से प्रकट हुई है : 'पुस्तक के पन्नों को ज्ञान कहते हो सो पुस्तक के पन्ने फट गए तो क्या ज्ञान फट गया ? पन्ने अजीव हैं, ज्ञान जीव है। अक्षरों का आकार तो पहचान के लिए हैं । पन्नों में लिखे हुए का जानना ज्ञान है । वह आत्मगत है। स्वयं के पास है। पन्ने भिन्न हैं।' (२०८)
संगठन का प्रश्न अनेक बार सामने आता है । स्वामीजी के सामने भी वह आया था। उनका चिंतन है : 'विचार और आचार की एकता के बिना साधु जीवन की एकता सम्भव नहीं । श्रद्धा और आचार की एकता हो जाने पर द्वैध नहीं टिकता। उसके अभाव में वैध नहीं मिट सकता।' (२०६).
आइंस्टीन से उनकी स्त्री ने पूछा-'तुम्हारा सापेक्षवाद क्या है सरलता से बताओ।' आइंस्टीन ने उत्तर दिया – 'सुहाग रात्रि छोटी लगती है और एक क्षण का भी अग्नि का स्पर्श बड़ा दीर्घकालीन लगता है, यही सापेक्षवाद है।
स्वामीजी रात्रि में व्याख्यान दिया करते । जैन साधु को रात्रि में एक प्रहर के बाद जोर से बोलने का निषेध है। द्वेषी हल्ला मचाते --'रात्रि बहुत हो गई। सवा पहर डेढ़ पहर बीत गई फिर भी व्याख्यान चलता है। यह साधु का काम नहीं।' स्वामीजी ने एक बार उत्तर दिया : 'विवाहादि सुख की रात्रि छोटी मालूम देती है। यदि मनुष्य संध्या-समय मर जाए तो दुःख की वह रात्रि अत्यन्त दीर्घ हो जाती है । इसी तरह जिन्हें द्वेषवश व्याख्यान नहीं सुहाता उन्हें रात्रि अधिक आई दिखाई देती है। जो अनुरागी हैं उन्हें तो वह प्रमाण से अधिक आई नहीं दिखाई देगी।' (१८) स्वामीजी ने लोगों को समझाने में ऐसे सापेक्षवाद का अनेक जगह उपयोग किया है।
धन और ज्ञान के साथ गठबन्धन होता ही है ऐसा मानना निरी भूल है। धनी जो कुछ करता है वह ज्ञान से ही करता है यह सिद्धांत नहीं हो सकता। उत्तमोजी ईराणी बोले-'आप देवालयों का निषेध करते हैं पर पूर्व में बड़े-बड़े लखपति करोड़पति हो गए हैं उन्होंने देवालय बनवाए हैं।' स्वामीजी ने पूछा --'तुम्हारे पास ५० हजार की सम्पत्ति हो जाए तो देवालय बनवाओगे या नहीं ?' वह बोला 'अवश्य बनवाऊंगा।' रवामीजी ने पूछा-'तुममें जीव के कितने भेद हैं ? कौन-सा गुणस्थान है ? उपयोग, योग, लेश्या कितनी है ?' वह बोला---'यह तो मुझे मालूम नहीं।' स्वामीजी बोले-'पूर्व के लखपति करोड़पति भी ऐसे ही समझदार होंगे। सम्पत्ति मिलने से कौन-सा ज्ञान जाता है।' (३९)
इन दृष्टांतों में कई अनुभव-वाक्य भरे पड़े हैं : 'आत्म-प्रदेशों में क्लामना हुए