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श्लो. : 3
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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श्लोक'-3 उत्थानिका- विनय-पूर्वक विनेय अपनी जिज्ञासा प्रकट करता है- भगवन्! आत्म-द्रव्य एक ही काल में चेतन तथा अचेतन दोनों कैसे हो सकता है?.... समझाने का अनुग्रह करें...... समाधान- आचार्य-देव कहते हैं:
प्रमेयत्वादिभिर्धमैरचिदात्मा चिदात्मकः ।
ज्ञानदर्शनतस्तस्माच्चेतनाचेतनात्मकः ।। अन्वयार्थ- (वह आत्मा) (प्रमेयत्वादिभिः) प्रमेयत्व आदि, (धर्मैः) धर्मों के द्वारा, (अचिदात्मा) अचेतन-रूप है, (ज्ञानदर्शनतः) ज्ञान और दर्शन-गुण से, (चिदात्मकः) चेतन-रूप है, (तस्मात्) इस कारण, (चेतनाचेतनात्मकः) चेतन-अचेतन दोनों रूप है।।3।। __परिशीलन- जिन-शासन में वस्तु के स्वरूप को समझाने के लिए प्रमाण और नय का आलम्बन लेना अनिवार्य है, जो प्रमाण और नय के माध्यम से तत्त्व-प्ररूपण करता है, वही सम्यग्दृष्टि होता है, बिना नय-प्रमाण के कुछ भी बोलने वाला जिन-शासन से बाह्य है, -ऐसा समझना चाहिए। तत्त्व-ज्ञानियों ने स्पष्ट रूप से नय-दृष्टि-रहित को मिथ्यादृष्टि कहा है:
जे णय-दिट्ठि-विहीणा ताण ण वत्थूसहाव-उवलद्धिं । वत्थु-सहाव-विहूणा सम्मादिट्ठी कहं हुति।।
___-द्रव्य-स्वभाव-प्रकाश, नयचक्र, गा. 181 जो नय-दृष्टि से विहीन हैं, उन्हें वस्तु के स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता और वस्तु के स्वरूप को न जानने वाले सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं?.....वस्तु-स्वरूप का सत्यार्थ निर्णय करने वाला तत्त्वज्ञ पुरुष ही सम्यग्दृष्टिपने को प्राप्त होता है। मनीषियो! एक बात को स्पष्ट समझना- धर्म की पुण्य-क्रियाओं को करना भिन्न विषय है, तत्त्व-निर्णय भिन्न विषय है। पूजन-पाठ आदि धार्मिक अनुष्ठान पूर्णरूपेण हेय नहीं 1. इस श्लोक को डॉ. सुदीप जी ने अपने सम्पादित संस्करण में चौथे श्लोक के रूप में प्रस्तुत किया है, पर वे चौथे
श्लोक के रूप में उसे क्यों प्रस्तुत कर रहे हैं? .....इसका कोई कारण वहाँ उल्लिखित नहीं है। हमने बहु-प्रति-उपलब्धता के आधार पर इसे तीसरे स्थान पर ही रहने दिया है।