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श्लो. : 1
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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त्यागी-गण भी जानते हैं, पर तब भी मौन हैं। सामान्य-जन आगम कम पढ़ते हैं, अनुकरण अधिक करते हैं, क्या तस्वीरों की पूजा उचित है? .....ज्ञानियो! प्रतिष्ठा-ग्रंथों के अनुसार तीर्थंकर की वेदी पर व अन्यत्र रखकर तीर्थकर की तस्वीर की पूजा आगम-सम्मत नहीं है, फिर अन्य की कैसे हो सकती है? ...... इनकी पूजा यदि मान्य होती, तो-फिर पंचकल्याणक प्राण-प्रतिष्ठा की क्या आवश्यकता होती? .....व्यर्थ में लाखों का द्रव्य प्रतिष्ठा में व्यय क्यों किया जाता है? ....दूसरी भूल- भजनों-वृन्दावलियों में प्रारंभ है, ध्यान दो- भजन कह कर मत टालना। लोग भजनों के माध्यम से सिद्धान्तों को विपरीत समझ लेते हैं-"कभी वीर बन के महावीर बन के चले आना, गुरु जी चले आना' यह भजन दूसरे की नकल है, पूर्ण श्रमण-संस्कृति के विरुद्ध है, श्रमण-संस्कृति में अवतार-वाद को कोई स्थान नहीं है, किसी भी साधक के लिए तीर्थंकर का अवतार बोलना मिथ्यात्व है। ___ हमारे यहाँ तीर्थंकर भगवान् अवतार नहीं लेते, एक तीर्थंकर के उपरांत दूसरे नए व भिन्न तीर्थंकर का जन्म होता है, न-कि वही अवतार लेते हैं। वर्तमान में मूल सिद्धान्त को भूलकर कुछ संघों व गृहस्थों के द्वारा अवतरण-दिवस मनाना या अवतरण कहना आगमानुकूल नहीं है। आचार्य रविषेण स्वामी ने पदमपुराण में स्पष्ट लिखा है कि तीर्थकर अवतार नहीं लेते, वे तो जन्म लेते हैं
आचाराणां विघातेन कुदृष्टिनाञ्च संपदा। धर्म-ग्लानिपरिप्राप्तमुच्छ्रयन्ते जिनोत्तमाः ।।
-पद्मपुराण, 5/206 अर्थात् जब आचार के विघात और मिथ्यादृष्टियों के वैभव से समीचीन-धर्म ग्लानि को प्राप्त हो जाता है, प्रभाव-हीन होने लगता है, तब तीर्थंकर उत्पन्न होकर उसका उद्योत करते हैं, न कि अवतार लेते हैं। मनीषियो! सिद्धान्त के विपरीत प्रवृत्ति को देखते हुए भी मौन रखना अहं व स्वार्थ का प्रतीक है। संस्कृति के प्रति निर्मल-भाव हों, तो ज्ञानार्णव ग्रंथ की कारिका पर ध्यान दो :
धर्मनाशे क्रियाध्वंसे सुसिद्धान्तार्थ-विप्लवे। अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने।।
-ज्ञानार्णव, 1/15 अर्थात् धर्म-नाश के उपस्थित होने पर अथवा परमागम के अर्थ के नष्ट होने पर सत्पुरुषों को पूछे बिना भी उसके स्वरूप को प्रकाशित करने वाला सम्भाषण करना