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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 1
कथन 'स्यात्' पद से युक्त होकर करें, जैसा कि आचार्य भगवन् अमृतचन्द्र स्वामी ने कहा है
उभय-नय-विरोधध्वंसिनि स्यात्पदाटे, जिन-वचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चैरनवमनपक्षाक्षुण्णमीक्षंत एव।।
-अध्यात्म-अमृत-कलश, श्लो. 4 में उद्धृत अर्थात् निश्चय-व्यवहार रूप जो दो नय हैं, उनमें विषय के भेद से परस्पर में विरोध है, उस विरोध को दूर करने वाले स्यात्पद से चिहित जिनेन्द्र भगवान् के वचन में जो रमण करते हैं, प्रचुर प्रीति-सहित अभ्यास करते हैं, वे पुरुष बिना-कारण अपने-आप मिथ्यात्व कर्म के उदय का वमन कर इस अतिशय रूप से परम ज्योतित, प्रकाशमान शुद्धात्मा का शीघ्र ही अवलोकन करते हैं। ___ ग्रंथकर्ता ने अनेकान्त-स्याद्वाद् शैली का सर्वत्र उपयोग करते हुए विरोधाभास अलंकार के साथ मंगलाचरण किया है। परमात्मा को मुक्त भी कहा है और अमुक्त भी। सामान्यतः लोगों की अवधारणा यही होती है कि परमात्मा तो मुक्त ही है, उसे अमुक्त कैसे कहा जा सकता है? ....यह अवधारणा एकांगी है, सर्वथा मुक्त मानने पर गुणों का अभाव भी स्वीकारना पड़ेगा, जहाँ गुणों का अभाव होगा, वहाँ गुणी का अभाव हो जाएगा, फिर आत्मा का अभाव होना मोक्ष कहलाएगा। अहो! पुनः एक प्रश्न खड़ा हो जाएगा कि जब आत्मा का अभाव हो जाएगा; तो-फिर मोक्ष-सुख की जो महिमा गायी जाती है कि वहाँ पर अनन्त-सुख है, किसी भी प्रकार की बाधा नहीं है, -इत्यादि सुखों का भोक्ता कौन होगा?... क्योंकि आप तो सर्वत्र एकान्त से मोक्ष मानते हैं, इसलिए प्रज्ञावन्त पुरुषों को मोक्ष के बारे में पुनः चिन्तवन करना चाहिए। आचार्य-प्रवर ने जगत् में मोक्ष स्वीकारने वालों को एक नया चिन्तन दिया है कि अनेकान्त-दृष्टि से आत्मा मुक्त-अवस्था में भी सर्वथा मुक्त ही नहीं है, वह अमुक्त भी है; परन्तु ध्यान रखना- एकान्त से अमुक्त भी नहीं है। यदि सर्वथा अमुक्त ही स्वीकारेंगे, तो-फिर आत्मा सर्वथा व सर्वदा कर्म-कलंक से युक्त ही रहेगा और-फिरतब मोक्ष का अभाव हो जाएगा, इसलिए मनीषियों को मोक्ष-तत्त्व पर अनेकान्त-दृष्टि से ही विचार करना चाहिए। यही कारण है कि अकलंक स्वामी तो एक-समय में एक