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श्लो. : 1
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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हुआ हूँ| अकलंक-उदधि का महा-मोती मेरे द्वारा कैसे ग्रहण किया जा सकता था, यह मात्र भक्ति एवं गणी-पद-प्रदाता गुरुदेव के आशीष का फल है, जो कि ग्रन्थराज पर कुछ विचार करेंगे; जो होगा, वह पूर्वाचार्यों का ही समझना।
।। ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।। परिशीलन- आचार्य-प्रवर अकलंक स्वामी अनुपम अनूठी शैली में वस्तु-स्वरूप का उद्घाटन कर रहे हैं, जिसे प्रथम बार सुनकर विद्वानों को भी एक क्षण को आश्चर्य लगने लगता है, जब मंगलाचरण में ही अपनी तर्क-भूषित प्रज्ञा का प्रयोग करते हैं, एकान्त-गृह-रत-जीव मेढे-जैसे निहारते हैं। क्या मुक्त भी अमुक्त हो सकते हैं? ...ज्ञानियो! ग्रन्थराज में आचार्य-देव ने सम्पूर्ण कारिकाओं में इसी पद्धति का प्रयोग किया, फिर तर्क के साथ सिद्ध किया, इससे एक नयी दिशा, नया चिन्तन तथा प्रज्ञा के मंथन की प्रेरणा प्राप्त होती है। मेरी दृष्टि में मनीषियो! प्रत्येक प्रज्ञ पुरुष को ग्रन्थराज का अध्ययन अनेक बार ही नहीं, जीवन के क्षण-क्षण में करना चाहिए। यह "स्वरूप-सम्बोधन" वस्तुतः स्वरूप का सम्बोधन ही है। यहाँ पर स्वरूप का कोई विकल्प नहीं रखा गया, शुद्ध अध्यात्म-तत्त्व की चर्चा है, ग्रंथराज पर परिशीलन का उद्देश्य अल्मारियों की शोभा बढ़ाना नहीं है, अपितु यह सभी हंसात्माओं के हृदय-मंदिर में स्थापित हो, -ऐसी भावना है। जैन आर्ष परम्परा रही है कि प्रत्येक शुभ कार्य से पूर्व मंगलाचरण अनिवार्य होता है। विनयवन्त पुरुष मंगल-पूर्वक ही मंगल कार्य करते हैं, अविनयी पुरुष बिना मंगल के ही कार्य प्रारम्भ कर देते हैं। यहाँ पर किसी का प्रश्न हो सकता है कि अविनयी जनों का बिना मंगल के किया गया कार्य भी फलित होते देखा जाता है और विनयवन्तों के द्वारा ज्ञान-मंगल करने पर भी अमंगल होते देखा जाता है; फिर आप मंगल की बात क्यों करते हो?... विशिष्ट धर्मात्मा दुःखी देखे जाते हैं, पापी धन-वैभव से सम्पन्न दृष्टिगोचर हो रहे हैं, इसलिए आपके द्वारा कथित मंगल की अनिवार्यता फलित नहीं होती। अहो! ऐसी आशंका एक नास्तिक के अंदर ही हो सकती है; भव-भीरु, आस्तिक व तत्त्वज्ञ-पुरुष के अंदर ऐसा विचार ही नहीं हो सकता, जिसे वर्तमान पर्याय मात्र दिख रही है, भूत-भविष्य का चिन्तन ही जिसके चित्त में नहीं है, ऐसी प्रत्यक्ष मात्र को प्रमाण मानने वाली चार्वाक् दृष्टि है। ___ मनीषियो! ध्यान रखना- किसी भी परम्परा में व्यक्ति का जन्म क्यों न हो?... उससे व्यक्ति के श्रद्धान का जन्म नहीं होता, श्रद्धान का उद्भव तो चिन्तवन की धारा से होता है। जैसी चिन्तवन-धारा होगी, वैसी ही श्रद्धान की धारा होती है; ध्यान