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परिशिष्ट-2
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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साध्य-साधन
जहाँ पर अभेद प्रधान और भेद गौण होता है, वहाँ पर सम्बन्ध समझना चाहिए।
आगम में अनेक सम्बन्धों का निर्देश पाया जाता है, यथा- ज्ञेय-ज्ञायक-संबंध भाव्य-भावक-सम्बन्ध,आधार-आधेय-सम्बन्ध, साध्य-साधक-सम्बन्ध आदि-आदि।
-जै. सि. को., भा. 4, पृ. 126 सिद्ध- समस्त आठ कर्मों के बन्धन को जिन्होंने नष्ट कर दिया है, ऐसे नित्य निरंजन परमात्मा ही सिद्ध कहलाते हैं।
-जै.द.पा.को., पृ. 255 सिद्धालय- देखिये- मोक्ष। सूक्ष्मत्व-गुण- इन्द्रिय गोचर न होना सूक्ष्मत्व गुण है। यह सिद्धों के आठ मूल-गुणों में एक है, जो नाम-कर्म के क्षय होने पर प्रकट होता है।
-जै.द. पा.को., पृ. 260 स्थिति-हेतुत्वअ- काल के प्रमाण का नाम स्थिति है। ब- विवक्षित वस्तु के काल के अवस्थान
को स्थिति कहते हैं। स- अपने स्वरूप से च्युत न होना, -इसे स्थिति कहा जाता है।
___ -जै.लक्ष., भा. 3, पृ. 1194 स्याद्वादअ- आचार्य शुभचन्द्र (ई.. 1516-1556)
द्वारा रचित एक न्याय विषयक ग्रन्थ। अनेकान्तमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति स्याद्वाद है। मुख्य-धर्म को सुनते हुए श्रोता को अन्य धर्म भी गौण रूप से स्वीकार होते रहें,
उनका निषेध न होने पावे, -इस प्रयोजन से अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् या कथंचित् शब्द का प्रयोग करता है।
-जै.सि.को., भा. 4, पृ. 497 स्यात्पद- जो नियम का निषेध करने वाला है, निपात से जिसकी सिद्धि होती है, जो सापेक्षता की सिद्धि करता है, वह ‘स्यात् शब्द कहा गया है।
-जै.सि.को., भा. 4, पृ. 498 स्वभाव- वस्तु के स्वयंसिद्ध, तर्कागोचर, नित्य-शुद्ध-अंश का नाम स्वभाव है। वह दो प्रकार के होते हैं- वस्तु-भूत और आपेक्षिक।
-जै.सि.को., भा. 4, पृ. 506 स्वरूपास्तित्वअ- सर्व-काल में गुण तथा अनेक प्रकार
की अपनी पर्यायों से और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से जो द्रव्य का अस्तित्व है, वह वास्तव में स्वभाव
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प्रत्येक द्रव्य की सीमा को बाँधते हुए ऐसे विशेष लक्षण-भूत स्वरूपातित्व से लक्षित होते हैं।
हेतु-हेतुफल- १. जो साध्य के साथ अविनाभावि पर्व से निश्चित हो अर्थात् साध्य के बिना न रहे उसको हेतु कहते हैं। 2. फल को हेतु कहते हैं। फल का कारण होने से उपचार से इसको फल कहा है।
ब
-जै. सि.को., भा. 4, पृ. 540