________________
246/
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
परिशिष्ट-2
ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। प्रत्यभिज्ञान प्रत्यवमर्श और संज्ञा -ये उसी के नामान्तर हैं। 2. दर्शन (प्रत्यक्ष) और स्मरण के निमित्त से होने वाले संकलनात्मक-ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। 3. अनुभव और स्मरण के निमित्त से जो तिर्यक् सामान्य व ऊर्ध्वता सामान्य आदि को विषय करने वाला संकलनात्मक ज्ञान होता है, उसे प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है।
प्रमेय- 1. द्रव्य-पर्याय-रूप वस्तु ही प्रमेय है, यही प्रमेय का लक्षण सर्व-संग्राहक होने से समीचीन है। 2. जो वस्तु जॉची जावे, उसे प्रमेय कहते हैं।
-जै.सि. को., भा. 3, पृ. 127 प्रवचनसार- आचार्य कुन्दकुन्द कृत 275 प्राकृत-गाथाओं में निबद्ध अध्यात्म व तत्वार्थ-विषयक तथा चारित्र-प्रधान ग्रन्थ
-जै.सि. को., भा. 3, पृ. 149
नक्ष., भा. 3, पृ. 752
प्रदेशत्व- जिसके द्वारा द्रव्य का कोई न कोई आकार बना रहता है, वह प्रदेशत्व
गुण है।
, -जै.द. पा. को., पृ. 167 प्रध्वंसाभाव- 1. आगामी काल से अगली पर्याय से विशिष्ट जो कार्य है, वह प्रध्वंसाभास कहलाता है। 2. दही में जो दूध का अभाव है, वह प्रध्वंसा-भाव स्वरूप है।
-जै. लक्ष.भा. 3, पृ. 765 प्रमाता- जो वस्तु को पाने या छोड़ने की इच्छा करता है, उसे प्रमाता कहते हैं।
___ -जै.सि. को., भा. 3, पृ. 126 प्रमाद- 1. प्रमाद-कषाय-सहित अवस्था को कहते हैं। 2. अच्छे कार्यों के करने में आदर-भाव का न होना, -यह प्रमाद है।
-जै.सि. को., भा. 3. पृ. 146 प्रमाण- सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है। स्वार्थ और परार्थ -ये दो भेद भी प्रमाण के हैं।
-जै.द. पा. को., पृ. 168
बन्ध-बन्धक-भाव- अनेक पदार्थों का मिलकर एक हो जाना बन्ध कहलाता है, वह तीन प्रकार का है- जीव-बन्ध, अजीव-बन्ध और उभय-बन्ध।
-जै. सि. को., भा. 3, पृ. 168 अभीष्ट स्थान में जाने से रोकने में जो कारण है, उसे बन्ध कहते हैं। वह अहिंसाणु-व्रत का एक अतिचार है।
-जैन लक्ष., भा. 3, पृ. 806 बन्धक-द्रव्य और भाव के भेद से दो भेदों में विभक्त बन्ध के जो कर्ता हैं, उन्हें बन्धक कहा जाता है।
-जै. लक्ष.. भा. 3, पृ. 806 बाल-बाल-मरण- अपने परिणामों से प्राप्त हुई आयु, इन्द्रियों और मन, वचन, काय
आदि -इन तीन बलों का कारण-विशेष के मिलने पर नाश होना मरण है। मिथ्यादृष्टि जीव के मरण को बाल-बाल-मरण कहते हैं।
-जै. सि. को., भा. 3, पृ. 290-291