________________
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
में लगभग ऐसी ही मान्यता थी । भाव यह है कि माना यह जाता था कि यदि न्याय-विद्या न पढ़ी हो, तो आप किसी भी विद्या को समाज में स्थापित नहीं कर सकते, या फिर आपने कुछ भी ठीक से नहीं पढ़ा है । यद्यपि न्याय - शास्त्र एक स्वतंत्र शास्त्र के रूप में जब विकसित हो रहा था और उस समय सभी विद्याओं के विशारद भी तब अपनी विद्या की पहचान के लिए न्याय - शास्त्र में शिक्षित और दीक्षित होना चाहते थे। यही कारण है कि लगभग सभी भारतीय दर्शनों ने न्याय - शास्त्र को अपने-अपने साँचे में पल्लवित करने की कोशिश की और यही वह कारण है, जिसके कारण न्याय-शास्त्र एक स्वतंत्र विद्या होते हुए भी जैन - न्याय, बौद्ध - न्याय - जैसी अवान्तर विद्याओं, या फिर यूँ कहा जाय कि कुछ अंशों में स्वतंत्र विद्याओं के रूप में भी विकसित हुआ ।
xx /
लॉजिक "Logic" के लिए हिन्दी में दो पारिभाषिक प्रमुख रूप में प्रचलित हैं, वे हैं- तर्क-शास्त्र और तर्क-विद्या । तर्क-शास्त्र को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि तर्क-शास्त्र "The science and art of reasoning correctly" है; भाव यह है कि वह विज्ञान और कला, जो समुचित तर्कणा पर आधारित है, तर्क - शास्त्र कहलायी । इस परिभाषा से तीन प्रश्न उठते हैं:- पहला प्रश्न - क्या तर्क - शास्त्र विज्ञान है ? .... दूसरा सवाल- क्या तर्क-शास्त्र कला है ?..... और तीसरा सवालसमुचित तर्कणा क्या है ? ..... -इन तीनों सवालों पर पश्चिमी विचार - शास्त्र में किताबें ही किताबें, तर्क के तर्क, दलीलें की दलीलें भरी पड़ी हैं । उन सब में ग्रथित समग्र सामग्री पर विचार कर पाना यहाँ कठिन ही नहीं, सम्भवतः सम्भव ही नहीं है; केवल अन्तिम सवाल के दो प्रमुख विचार- पक्षों की चर्चा महत्त्वपूर्ण है, जो 'तर्क पर तर्क' और 'सत्य पर तर्क' पर आधारित हैं। इन दोनों बिन्दुओं के मानने वाले दो बड़े स्कूल "School" पश्चिमी तर्क-शास्त्र में विकसित हुए । इस पश्चिमी तर्क-शास्त्र अर्थात् लॉजिक "Logic" की एक परिभाषा और मिलती है, जो तर्क - शास्त्र अर्थात् लॉजिक "Logic" को किसी भी ज्ञान - शाखा की तार्किक भूमिका के रूप में "The Principles of any branch of knowledge" देखती है तथा इसप्रकार कुछ लोग पश्चिमी दुनिया में भी विभिन्न ज्ञान-शाखाओं के मूल सिद्धान्तों के रूप में भी तर्क-शास्त्र या उसके आधारों को देखते हैं। जो लोग इस रूप में तर्क-शास्त्र को देखते हैं, वे तर्क-शास्त्र को ज्ञान के तर्काधारों या तार्किक आधारों के रूप में लेते हैं। इस ज्ञान - शाखा के विचारकों का मूल मिथक यह है कि कोई भी ज्ञान-शाखा तर्काधारों के बिना पल्लवित नहीं हो सकती। एक ज्ञान-शाखा को दूसरी ज्ञान- शाखा तर्काधारों के आधारों पर ही अलग रूप में मानती है या अलग रूप से प्रख्यापित करती है, पर कोई भी ज्ञान - शाखा तर्काधार के बिना नहीं होती या